Friday, July 10, 2009


हाँ, मुझे भी याद है
तुम्हारा वह घर।
घर ही तो था,
ईंट को गारे से जोड़कर।
बनाया गया,
जिसमे मैंने पहली बार,
यह सोचकर कदम रखा,
की मिलेंगे कुछ जाने-पहचाने,
पर तुम्हे घेरे खड़े थे,
कुछ अनजाने,
जो तुम्हारे अपने थे, शायद!
मुझे घेरकर,
सोच रहे थे,
न जाने कौन है।
जब तुमने ,
लाकर दिया था,
वह नीला ,दुशाला,
देखा था मैंने,
तुम्हे कृतघ्न होकर।
तब शायद उनको,
विश्वास हुआ था,
मै भी हूँ तुम्हारी,
एक परछाईं!
छोड़कर सारी औपचारिकता,
तुमने मुझे वह दिया,
जो मैंने चाहा।
तब निर्णय किया,
अब मै ईंट -गारे के ,
इस घर को घर बनाउंगी।
जो मैंने पाया,
उसे बांटकर,
अपनी इस नन्ही दुनिया को ,
खूबसूरत बनाउंगी।







3 comments:

Ashutosh said...

बहुत अच्छी कविता है.

हिन्दीकुंज

M VERMA said...

अब मै ईंट -गारे के ,
इस घर को घर बनाउंगी।
===
वाह! बहुत सुन्दर
घर को घर बनाने के लिये ईंट-गारे से अलग कुछ चाहिये

निर्मला कपिला said...

वाह बहुत अच्छे भाब हैं अपने पन से ही घर बनता है शुभकामनायें आभार्