Tuesday, December 8, 2015

विन्नी ................................. कहानी

वह तड़के ही घर से निकल पड़ी थी। कुछ दूर चलने के बाद उसे मंदिर की घंटी सुनाई दी। उसके कदम स्वतः ही उस ओर बढ़ गए। मंदिर के सामने पहुॅंचकर वह कुछ देर खड़ी रही। भीतर जाने का मन नहीं हुआ उसका। वह सीढ़ियों पर ही बैठ गई सामने झील में उठती लहरें उसके अंदर चल रहे तूफान का आकार बता रहीं थीं। जैसे ही मंदिर में आरती समाप्त हुई वह बोझिल कदमों से सीढ़ियॉं उतरने लगी। तीन चार सीढ़ी उपर ही रुककर वह गौर से झील में देखने लगी। एक दृढ़ निष्चय से उसने छलॉंग लगाई हवा में उछली। झील में गिरती इससे पहले ही दो मजबूत हाथों ने उसे जकड़ लिया। वह बेहोष हो गई थी। जब ऑंखें खोलीं तो देखा मंदिर के पंडित जी लोटा हाथ में लिए उसके मुॅंह पर पानी के छींटे डाल रहे हैं। उसने उठने का प्रयास किया पर शरीर ने साथ नहीं दिया। पंडित जी ने उसे सहारा देकर उठाया। मंदिर के ऑंगन में बनी पट्टी पर उसे बिठाकर कुछ प्रसाद खाने को और पानी पीने को दिया। उसे सामान्य होते देख पंडित जी ने कहा, मंदिर के पीछे एक कमरा है, तुम जब तक चाहो उसमें रह सकती है। पास ही मेरा घर है मैं तुम्हारे लिए कपड़े और कुछ खाने को लेकर आता हूॅं। बिना उसके उत्तर की प्रतीक्षा किए वे चल दिए। वह उसी जगह बैठे पंडित जी को जाता हुआ देखती रही।
कुछ ही देर में पंडित जी लौट आए। ये लो कपड़े और भोजन। कमरे में जाकर स्नान कर लो और भोजन भी। फिर इच्छा हो तो मंदिर में आ जाना। वह यंत्रवत सी उठी और पंडित जी द्वारा बताई दिषा में चल दी। स्नान कर उसने अपने कपड़े धोकर बाहर सुखा दिए। बिना भोजन किए आकर उसी पट्टी पर बैठ गई।
दोपहर की आरती के बाद मंदिर बंद कर पंडित जी अपने घर चले गए। उससे बिना कुछ कहे। वह भी कुछ देर बाद अपने कमरे में आ गई। भोजन करते ही उसे नींद आने लगी और पास पड़ी खटिया पर वह लेटते ही गहरी नींद सो गई। उसे ऐसा लग रहा था जैसे जन्मों की उनींदी हो और शायद थी भी।
दरवाजे पर दस्तक सुनकर उसकी ऑंख खुल गई। पंडित जी थे। उनके साथ पंडितानी थी। वह उठकर बैठ गई। पंडितानी भी खाट पर उसके साथ बैठ गई। पंडित जी मंदिर में चले गए। एक लड़का दो गिलासों में चाय लेकर आया और दोनों को देकर चला गया।
क्या नाम है तुम्हारा?
विनीता।
हम तुम्हें विन्नी बुलाएॅंगे।
उसने मौन स्वीकृति दे दी।
चलो मंदिर में चलकर बैठेंगे। उसके हाथ से चाय का गिलास लेते हुए पंडितानी बोली और वह यंत्रवत सी उनके पीछे हो ली। कई घंटे वे लोग ऐसे ही बैठे रहे। आरती के बाद वे उसे कक्ष में छोड़कर चली गईं। विन्नी उनके स्नेह से द्रवित हो उन्हें दीदी बुलाने लगी। वह स्वतः ही मंदिर की साफ सफाई करने लगी। बरतन और कपड़े धोने लगी। सारा सामान यथा स्थान रखती। प्रसाद सहेजती, हार फूल समेटती। एक माह इसी तरह गुजर गया। एक दिन वह कमरे में ही थी उसे मासिक था। वह मंदिर नहीं गई। वह कमरा ठीक कर रही थी। तभी दीदी आ गई।
क्या कर रही हो विन्नी, आज मंदिर नहीं आई।
नहीं वह मुझे मंदिर में नहीं जाना, मासिक से हूॅं।
सब ऐसे ही चल रहा था। पर वह इस एकाकी जीवन से उकता गई थी। आज तो उसे रोना ही आ गया। वह घंटों रोती रही। कब ऑंख लग गई पता नहीं। वह जागी तो शाम ढल चुकी थी। दो तीन दिनों से दीदी भी नहीं आई थी। वह उठी और पंडित जी के घर की ओर चल दी। पहले तो कभी गई नहीं थी पर रोज पंडित जी इस ओर ही जाते थे। थोड़ी ही दूर पर एक मकान के ऑंगन में दीदी बैठी दिखाई दे गई। दो मिनट वह गेट पर ही खड़ी देखती रही। दीदी सीढ़ी पर बैठी थी बिखरे बाल, उदास चेहरा। जाने किन ख्यालों में थी। वह गेट खोलकर दाखिल हो गई और उनके सामने सीढ़ी पर बैठ गई तब कहीं दनका ध्यान टूटा।
क्या हुआ दीदी, तबियत तो ठीक है न?
दो दिन से आई भी नहीं, मुझे ही बुला लिया होता।
दीदी फफक फफक कर रो पड़ी। क्या बताउॅं विन्नी, औरत का जीवन तो नर्क है। भगवान अगले जन्म में मुझे औरत न बनाए।
उनके ऑंसू पोंछते हुए विन्नी बोली, ऐसा क्यों कहती हो। आखिर ऐसा क्या हुआ? मुझे बताओ।
दीदी ने रोते रोते जो कुछ बताया उससे विन्नी के पैरों के नीचे की जमीन हिल गई। पंडित जी से उनका विवाह हुए दस वर्ष हो चुके थे पर अभी तक उनका कोई बच्चा नहीं था। डॉ. के मुताबिक पंडितानी मॉं नहीं बन सकती थी। उसने पंडित जी की चोरी से जॉंच करा ली थी। पंडित जी ज्यादा पढ़े लिखे नहीं थे और डॉक्टरी में विश्वास नहीं करते थे। बस उन्हें भगवान पर भरोसा था। विन्नी को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? उसे लगा ईश्वर की यह कैसी सृष्टि है? एक वह है जिसमें कोई कमी नहीं पर उसका पति नपुंसक है और रोज रोज की मार से बचने के लिए ही उसे घर छोड़ना पड़ा। एक यह दीदी और पंडित जी जहॉं पंडित जी में कोई कमी नहीं।
वह चुपचाप दीदी की पीठ सहलाती रही। कुछ देर बाद विन्नी उन्हें अंदर ले गई। फिर उसने खाना बनाया और पंडित जी का इंतजार करने लगी। पंडित जी आए हाथ मुॅंह धोकर सीधे रसोई में गए, देखा गरम गरम खाना तैयार है। दनदनाते हुए बाहर आए पर विन्नी को देखकर उनके कदम ठिठक गए। हड़बड़ाकर बोले, तुम, तुम यहॉं कैसे?
विन्नी ने कोई जवाब नहीं दिया। उसने दो थालियों में खाना परोसा, पीढ़ा लगाया और उस पर एक थाली पंडित जी के लिए रखी और दूसरी दीदी को दी। उनके बाद उसने भी खाना खाया और अपने कमरे पर आ गई। उस रात विन्नी को बिल्कुल भी नींद नहीं आई। वह रात भर उन दोनों के बारे में ही सोचती रही। उसने दृढ़ निश्चय कर लिया कि अगले दिन पंडित जी से वह इस विषय पर जरूर बात करेगी।
सुबह उसने दरवाजा खोला तो देखा दिन चढ़ गया था। पंडित जी पूजा में लगे थे। उसने स्नान किया और मंदिर में जाकर बैठ गई। मन कल की बात से खिन्न था सो कुछ करने की इच्छा नहीं हुई। फिर उठी और पंडित जी के घर की ओर चल दी। उसने सोचा पंडित जी कम पढ़े लिखे हैं कहीं उसकी इस बात का मजाक न बना दें। वह दीदी के पास पहुॅंची। दीदी धूप में बैठी बाल सुखा रही थी। लंबे, घने, काले केश, दीदी बहुत सुंदर लग रही थी। हमेशा विन्नी ने उन्हें तेल लगे बालों की सख्त चोटी में ही देखा था जिसमें सिंदूर से भरी चौड़ी मॉंग दो देशों का विभाजन करती सी लगती।
बिना किसी भूमिका के विन्नी ने कहना शुरु किया, दीदी आप और मैं दोनों एक ही पीड़ा के भोगी हैं।
क्या मतलब है तुम्हारा? यानी तुम भी मेरी तरह . . .
नहीं! पर मेरे पास हमारी समस्या का हल है। अगर आप इजाजत दें तो . . .
  तुम जो कहोगी मैं करूॅंगी। बताओ मुझे क्या करना होगा . . .
एक उपाय है। मैं पंडित ही के बच्चे की मॉं बनकर आपको मातृत्व सुख देना चाहती हॅूं, इससे हम दोनों की अभिलाषा पूरी हो जाएगी। आप पंडित जी से बात करके उन्हें समझा देना।
ठीक है मैं तैयार हूॅं।
पीछे से पंडित जी का स्वर सुनकर दोनों चौंक पड़ीं।
मैंने तुम्हें इधर आते देखा तो मैं भी चला आया। मैं तो सिर्फ भोजन करने आया था पर अब मुझे भूख नहीं। शायद प्रभु ने इसीलिए तुम्हें हमसे मिलाया है। हॉं बोलो भाग्यवान हॉं! मुझे विन्नी का प्रस्ताव स्वीकार है।
गदगद होकर पंडित जी ने पंडितानी को गले लगा लिया।
विन्नी ने रसोई में जाकर खाना परोसा तीनों ने साथ ही खाया और पंडित जी मंदिर चले गए। विन्नी दीदी के साथ निकल पड़ी। अब उन्हें तलाश थी एक ऐसी महिला चिकित्सक की जो उनकी योजना को साकार कर सके। अभी तक विन्नी ने आवीएफ और सरोगेसी के बारे में सुना और पढ़ा ही था परंतु विस्तृत जानकारी तो डॉक्टर ही दे सकता है। दो तीन दिन भटकने के बाद एक मैडम मिल गईं जिनके नर्सिंग होम में सारी सुविधाएॅं थीं। उन्होंने मदद का आश्वासन दिया और तीनों को अगले रविवार को बुलाया। डॉक्टर ने विन्नी और पंडित जी की कुछ जॉंचें करवाईं। कुछ घंटे बाद डॉक्टर ने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर पंडित जी के शुक्राणुओं को विन्नी के अंडकोश में स्थापित कर दिया।
एक माह बाद रिपोर्ट पॉसिटिव आई। नौ माह पूरे होने पर विन्नी ने दो खूबसूरत बेटियों को जन्म दिया। विन्नी ने दो परिवारों को पूरा कर दिया था। एक बेटी उसने दीदी की गोद में देते हुए कहा, दीदी यह आज से आपकी बेटी है।
और इसका नाम गीता है। तुम्हारी बेटी का नाम कविता रखेंगे। पंडित जी ने कहा।
दो साल बीत गए। पंडित जी दोनों बेटियों की जरूरतों का पूरा ध्यान रखते। दोनों ही बेटियॉं अपनी मॉं के साथ बड़ी हो रहीं थीं। एक शाम कविता और गीता मंदिर प्रांगण में खेल रहीं थी। पास ही विन्नी मंदिर के बर्तन साफ कर रही थी। अचानक एक नौजवान आया और विन्नी के पैर पकड़कर रोने लगा, मुझे माफ कर दो विन्नी। मुझे अपनी गलती का पता चल गया है। चलो मैं तुम्हें लेने आया हूॅं। तभी कविता दौड़ती हुई आई और विन्नी से लिपटते हुए बोली, मॉं घर चलो मुझे प्यास लगी है।
विन्नी यह बेटी? क्या तुम्हारी बेटी है यह . . . ?
पीछे बैठी पंडितानी जो अब तक दोनों की बाते सुन रही थी सारा माजरा समझ चुकी थी बोली, हॉं भाईसाहब यह विन्नी की ही बेटी है। आप मेरे साथ घर चलिए मैं आपको सब विस्तार से बताउॅंगी।

Monday, June 8, 2015

गीत

इक नजर प्यार की जो हो जाए, सारी दुनिया हसीन हो जाए,
जलने वालों की कतार लंबी है, जलते है जल के खाक हो जाएं,
प्यार करने वाले डरते नहीं, जलने वाले तबाह हो जाएं,
इक नजर प्यार की जो हो जाए, सारी दुनिया हसीन हो जाए,

लाखों चेहरे हैं परदे के पीछे, इक तेरा चष्मे दीद हो जाए,
तेरे पहलू में जो ये चेहरा है, उससे ही आँख चार हो जाए,
इक नजर प्यार की जो हो जाए, सारी दुनिया हसीन हो जाए

नहीं निकले कभी जो परदे से, उनको ये एतबार हो जाए,
हुस्न वालों की इस गली में फिर, इष्क का नाम नाम हो जाए,
इक नजर प्यार की जो हो जाए, सारी दुनिया हसीन हो जाए

तुमने देखा है इष्क का जलवा, एक झलक हुस्न की भी देख चलो,
इक नजर इष्क की जो हो जाए, हुस्न को एतबार आ जाए,
इक नजर प्यार की जो हो जाए, सारी दुनिया हसीन हो जाए

जीने का आधार (कहानी )


सामने वाले मकान में बिखरी रोषनी ने उसका ध्यान खींच लिया। केवल रोषनी ही नहीं चहल- पहल भी थी। झाड़ झंकाड़ों से भरा ऑंगन भी साफ सुथरा दिखाई पड़ रहा था। एक तरफ कुछ बच्चे खेल रहे थे। पीछे की ओर ढलान पर चूल्हे पर बड़ा सा भगोना रखा था। पिछले दो सालों से यह घर वीरान सा था। कल तक तो यहॉं कोई भी नहीं दिखता था। क्या वहॉं कोई नया किराएदार आ गया? कहीं आंटी ने मकान बेच तो नहीं दिया? एक अनजानी आशंका से उसका मन काम से उचट गया। उसने कंप्यूटर षटडाउन किया और शाल लपेटकर बाहर आ गई। अपने आप से प्रश्न करते उसके कदम स्वतः ही उस ओर बढ़ गए।
बगीचे से उसने देखा दिसंबर की कड़ाके की ठंड और ऐसा आयोजन तो आंटी ने पहले कभी नहीं किया था। और कल षाम तो वह उनके साथ ही थी तब भी उन्होंने इसका जिक्र नहीं किया था। जबकि उनका पूरा परिवार हॅंसता खेलता इसी घर में था और अंकल भी जीवित थे। बस एक बार इन्हीं दिनों की तो बात है षायद नवंबर, नहीं, नहीं दिसंबर का ही महीना था। ऐसी ही कड़ाके की ठंड, हाथ को हाथ नहीं सुझाई देता था। उसका मन लुढककर 4-5 साल पीछे की उस भयानक रात की तरफ चला गया। उस समय भी कुछ ऐसा ही हुआ था तीन चार दिन की रिमझिम के बाद पूरा षहर ठंड की चपेट में था। सब अपने अपने घरों में बंद होकर टीवी देख रहे थे या चाय पकोड़े का मजा लेकर रजाइयों में दुबके थे। इक्का दुक्का घरों में देर रात आने वालों की ही थोड़ी बहुत हलचल थी। वह रूम हीटर के सहारे अपने कंप्यूटर पर काम निबटा रही थी। पूरे मोहल्ले में केवल यही एक घर था जहॉं धूमधड़ाका मचा हुआ था। बहुत सारे मेहमानों से घिरी आंटी रसोइए को निर्देष दे रहीं थीं। एक तरफ अंकल अपने संबंधियों से घिरे बैठे अलाव का मजा ले रहे थे। बीच बीच में ठहाकों से पूरा मोहल्ला गॅूंज जाता। उनी कपड़ों से लदे फदे लोग यहॉं से वहॉं हो रहे थे। आंटी अंकल बेटी की षादी करके लौटे थे। बेटे की षादी तो पहले ही हो चुकी थी। वह अपनी पत्नी और बच्चे के साथ विदेष में ही सैटल हो गया था। वह भी एक माह की छुट्टी में आया हुआ था। वह हर साल दिसंबर में ही आया करता था। आंटी ने भी षायद इसीलिए दिसंबर में ही बेटी की षादी करना निष्चित किया था।
पिछले एक सप्ताह से उनके यहॉं इसी तरह का माहौल था। बस बीते दो दिन घर में षांति थी जब षादी के लिए वे लोग जयपुर गए हुए थे। आजकल बड़े षहरों और धनाढ्य वर्ग में दूसरे षहर में जाकर थीम बेस्ड षैली में विवाह का चलन है। एक बात और है जब लक्ष्मी का भंडार ओवरफ्लो होने लगता है तब ही व्यक्ति को यह सब चोचले सूझते हैं। और फिर तीन चार कमाउ लोगों को एक बेटी का विवाह करना हो तो सोने पर सुहागा। यही स्थिति यहॉं भी थी। आंटी अंकल दोनों सरकारी नौकरी से रिटायर हो चुके थे और अच्छी पेंषन का सहारा था। बेटा बहू दोनों विदेशी मुद्रा में मोटी तनख्वाह पा रहे थे। उनके यहॉं तो अक्सर हर साल बड़े सामान और गाड़ी वगैरह बदली जाती। बेटा विदेष से ढेर सारा धन लाता और पुराने सामान को बाहर निकाल फेंकता। उनकी जगह नए नए आधुनिक उपकरण आ जाते।
अचानक अंकल की आवाज सुनाई पड़ी राहुल, राहुल . . . और उनकी आवाज धीमी होती चली गई। माहौल अफरा तफरी में बदल गया। किसी ने फोन किया होगा थोड़ी ही देर में एम्बुलैंस भी आ गई। आंटी उनका सीना मल रहीं थीं। हॉस्पिटल जाते जाते अंकल ने आंटी की गोद में दम तोड़ दिया।  काली अॅंधियारी रात की निस्तब्धता के सन्नाटे को चीरती हुई आंटी की आवाज पूरे वातावरण को गमगीन कर गई। चहचहाते घर में मौत का मातम छा गया। चहकती फुदकती सबकी खैर खबर रखने वाली आंटी  एकाएक सन्नाटे की मूर्ति में बदल गईं।
उसे वह काली भयानक रात हत्यारिन लगने लगी। सब कुछ थम सा गया। चूल्हे और अलाव सब ठंडे पड़ गए। अगले दिन अंकल का अंतिम संस्कार किया गया। कोई कुछ, कोई कुछ कह रहा था। अच्छा हुआ बेटी का कन्यादान साथ साथ कर लिया दोनों ने। जे कहो बेटा यहीं था तो समय से आग मिल गई वरना धरे रहते उसके इंतजार में। ईष्वर जो करता है ठीक ही करता है। जितने मुॅंह उतनी बातें। एक एक कर सारे रिष्तेदार चले गए। छुट्टी खत्म होते ही बेटा बहू भी चले गए। आंटी की एक बूढ़ी मौसी ही कुछ महीनों तक टिकी रहीं। आंटी के भैया भाभी ने साथ चलने को बहुत समझाया पर आंटी अंकल की यादों को छोड़कर जाना नहीं चाहती थीं। बेटे बहू भी साथ चलने का आग्रह कर थक चुके थे।
फिर तो उसने नियम सा बना लिया आते जाते दिख जातीं तो उनसे पूछ लेती। किसी वस्तु की आवष्यकता होती तो ला दिया करती। एक बार  तीन चार दिन हो गए। आंटी दिखाई नहीं दीं। उसने ध्यान दिया तो ताला लगा हुआ था। रविवार के दिन वह नाष्ते के बाद देखने गई। दरवाजा खुला था और कपड़े भी सूख रहे थे। वह गेट खोलकर अंदर पहुॅंची। देखा आंटी बिस्तर पर लेटी थीं। बीमार लग रही थीं। एक लड़का सा था। पास ही बैठकर लैपटॉप पर काम कर रहा था। आंटी मुझे देखते ही उठने लगीं। पर उठ न सकीं। तीन चार दिन में ही बहुत कमजोर हो गईं थीं। उसने जल्दी से उन्हें पकड़ लिया और लिटा दिया। आंटी ने धीरे धीरे बताया कि उन्हें अचानक चक्कर आ गया था। तुम्हारा नंबर नहीं था। भैया को फोन किया। फिर उन्हीं के साथ चली गई। अब कुछ ठीक हूॅं। बस कमजोरी है। यह मेरा भतीजा है। बी ई कर रहा है। आज छुट्टी है इसकी तो मैं इसे साथ ले आई।
इतना बताते वह हॉंफने लगीं थीं। वह कुछ देर बैठकर आ गई। आंटी के भैया भाभी दोनों ही नौकरी करते थे। वे भी कब तक साथ देते। छुट्टी मिलते ही उनका बेटा उन्हें लेने आ गया। उसने मकान बेचने का पूरा इंतजाम कर लिया था। आते ही वह सामान और मकान बेचने की जद्दोजहद में लग गया। पहले उसने कार बेची। वैसे भी अंकल के जाने के बाद से वह गैरेज में बेकार खड़ी थी। बेटा जब भी आता था तब जरूरत पड़ती और उसकी धूल झड़ती। जब बेटे ने आंटी से मकान के कागजातों पर दस्तखत मॉंगे तब आंटी की चेतना जागी। वे एकदम षोले की तरह भड़क उठीं। आंटी और बेटे में काफी बहस भी हुई। एक परिवार की ढकी मुॅंदी बातें आज खुलकर उजागर हो गईं।
भैया भाभी ने भी बहुत समझाया, बेटी दामाद ने भी समझाया पर आंटी ने साइन नहीं किए और मकान का सौदा वहीं रुक गया। गुस्से से भैराए बेटे ने वह सब उगल दिया जो आज तक सीने में कहीं दबा हुआ था।
आंटी ने एक वाक्य में कहा, मैं नहीं चाहती की दूसरे देष में मेरी चिता जले। अपनी जन्मभूमि में मरना है मुझे।
भारत माता की जय३। अचानक उसका ध्यान टूटा उसने देखा बच्चे एक कतार में बैठने लगे हैं और आंटी उन्हें खाना परोस रही हैं। पूरे पॉंच साल बाद इस घर में रौनक वापस आ गई थी। उसने पास जाकर देखा झुग्गी बस्ती के 20-25 बच्चे थे जो आंटी के हाथ का बना हलुआ पूरी और सब्जी चटखारे लेकर खा रहे थे। आंटी ने मुस्कुराकर कहा, आज अंकल की पुण्य तिथि है।
वह भी आगे बढ़कर आंटी का हाथ बटाने लगी।
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’जया केतकी, 45 मंसब मंजिल रोड, भोपाल, 462001, 9826245286




भाषा ज्ञान


सामान्यतः भाषा को वैचारिक आदान-प्रदान का माध्यम कहा जा सकता है।
किसी प्रदेश की राज्य सरकार के द्वारा उस राज्य के अंतर्गत प्रशासनिक कार्यों को सम्पन्न करने के लिए जिस भाषा का प्रयोग किया जाता है, उसे राज्यभाषा कहते हैं। यह भाषा सम्पूर्ण प्रदेश के अधिकांश जन-समुदाय द्वारा बोली और समझी जाती है। प्रशासनिक दृष्टि से सम्पूर्ण राज्य में सर्वत्र इस भाषा को महत्त्व प्राप्त रहता है।
भारतीय संविधान में राज्यों और केन्द्रशासित प्रदेशों के लिए हिन्दी के अतिरिक्त 21 अन्य भाषाएं राजभाषा स्वीकार की गई हैं। राज्यों की विधानसभाएं बहुमत के आधार पर किसी एक भाषा को अथवा चाहें तो एक से अधिक भाषाओं को अपने राज्य की राज्यभाषा घोषित कर सकती हैं।
जब से मानव अस्तित्व में आया तब से ही भाषा का उपयोग कर रहा है चाहे वह ध्वनि के रूप में हो या सांकेतिक रूप में या अन्य किसी रूप में। भाषा हमारे लिए बोलचाल का माध्यम होती है। संप्रेषण का माध्यम होती है।
इसके द्वारा हम अपने विचार व्यक्त कर सकते हैं। बातचीत कर सकते हैं। दूसरे लोगों के विचार सुन सकते हैं। यह बिलकुल सही है क्योंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज का निर्माण मनुष्यों के पारस्परिक सहयोग से होता है। समाज में रहते हुए मानव आपस में अपनी इच्छाओं तथा विचारों का आदान-प्रदान करता है।
विचारों को व्यक्त करने के लिए उसे भाषा की आवश्यकता होती है। अतरू हम यह कह सकते हैं कि जिन ध्वनियों द्वारा मनुष्य आपस में विचार विनिमय करता है उसे भाषा कहते हैं। इसको हम इस प्रकार भी कह सकते हैं- सार्थक ध्वनियों का समूह जो हमारी अभिव्यक्ति का साधन हो, भाषा कहलाता है।
भाषा के साथ एक महत्वपूर्ण बात यह है कि भाषा केवल ध्वनि से व्यक्त नहीं होती। संकेत तथा हाव-भावों से भी व्यक्त होती है जैसे बोलते समय चेहरे की आकृति में परिवर्तन होना, हाथ तथा उँगलियाँ हिलाना।
  क्या किसी भी भाषा को राष्ट्रभाषा बनाया जा सकता है। किसी भी देश की राष्ट्रभाषा उसे ही बनाया जाता है जो उस देश में व्यापक रूप में फैली होती है। संपूर्ण देश में यह संपर्क भाषा व्यवहार में लाई जाती है।    
भाषा राष्ट्र के लिए क्यों आवश्यक है। भाषा राष्ट्र की एकता, अखंडता तथा विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यदि राष्ट्र को सशक्त बनाना है तो एक भाषा होना चाहिए। इससे धार्मिक तथा सांस्कृतिक एकता बढ़ती है। यह स्वतंत्र तथा समृद्ध राष्ट्र के लिए आवश्यक है। इसलिए प्रत्येक विकसित तथा स्वाभिमानी देश की अपनी एक भाषा अवश्य होती है जिसे राष्ट्रभाषा का गौरव प्राप्त होता है।
क्या किसी भी भाषा को राष्ट्रभाषा बनाया जा सकता है। किसी भी देश की राष्ट्रभाषा उसे ही बनाया जाता है जो उस देश में व्यापक रूप में फैली होती है। संपूर्ण देश में यह संपर्क भाषा व्यवहार में लाई जाती है।
राष्ट्रभाषा संपूर्ण देश में भावात्मक तथा सांस्कृतिक एकता स्थापित करने का प्रधान साधन होती है। इसे बोलने वालों की संख्या सबसे अधिक होती है। हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी भारत के प्रमुख राज्य जैसे मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, बिहार, राजस्थान, हरियाणा तथा हिमाचल प्रदेश में प्रमुख रूप से बोली जाती है।
राष्ट्रभाषा सम्पूर्ण राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करती है। प्रायरू वह अधिकाधिक लोगों द्वारा बोली और समझी जाने वाली भाषा होती है। प्रायरू राष्ट्रभाषा ही किसी देश की राजभाषा होती है।भाषा वह साधन है जिसके द्वारा हम अपने विचारों को व्यक्त करते है और इसके लिये हम वाचिक ध्वनियों का उपयोग करते हैं किसी भाषा की सभी ध्वनियों के प्रतिनिधि स्वन एक व्यवस्था में मिलकर एक सम्पूर्ण भाषा की अवधारणा बनाते हैं । प्रायः भाषा को लिखित रूप में व्यक्त करने के लिये लिपियों की सहायता लेनी पड़ती है। भाषा और लिपि, भाव व्यक्तीकरण के दो अभिन्न पहलू हैं। एक भाषा कई लिपियों में लिखी जा सकती है, और दो या अधिक भाषाओं की एक ही लिपि हो सकती है । उदाहरणार्थ पंजाबी, गुरूमुखी तथा शाहमुखी दोनो में लिखी जाती है जबकि हिन्दी, मराठी, संस्कृत, नेपाली इत्यादि सभी देवनागरी में लिखी जाती है।
जो देश भाषा में गुलाम हो, वह किसी बात में स्वाधीन नहीं होता और उसका चरित्र औपनिवेशिक बन जाता है। यह एक पारदर्शी कसौटी है कि चाहे वे किसी भी समुदाय के लोग हों, जिन्हें हिंदी को राष्ट्रभाषा मानने में आपत्ति है, वह भारतवर्ष को फिर से विभाजन के कगार तक जरूर पहुँचाएँगे।
लार्ड मैकाले का मानना था कि जब तक संस्कृति और भाषा के स्तर पर गुलाम नहीं बनाया जाएगा, भारतवर्ष को हमेशा के लिए या पूरी तरह, गुलाम बनाना संभव नहीं होगा। लार्ड मैकाले की सोच थी कि हिंदुस्तानियों को अँग्रेजी भाषा के माध्यम से ही सही और व्यापक अर्थों में गुलाम बनाया जा सकता है।
अंग्रेजी जानने वालों को नौकरी में प्रोत्साहन देने की लार्ड मैकाले की पहल के परिणामस्वरूप काँग्रेसियों के बीच में अंग्रेजी परस्त काँग्रेसी नेता पं. जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में एकजुट हो गए कि अंग्रेजी को शासन की भाषा से हटाना नहीं है अन्यथा वर्चस्व जाता रहेगा और देश को अंग्रेजी की ही शैली में शासित करने की योजनाएँ भी सफल नहीं हो पाएँगी
यह ऐसे अंग्रेजीपरस्त काँग्रेसी नेताओं का ही काला कारनामा था कि अंग्रेजी को जितना बढ़ावा परतंत्रता के 200 वर्षों में मिल पाया था, उससे कई गुना अधिक महत्व तथाकथित स्वाधीनता के केवल 50 वर्षों में मिल गया और आज भी निरंतर जारी है।
जबकि गांधी जी का सपना था कि अगर भारतवर्ष भाषा में एक नहीं हो सका, तो ब्रिटिश शासन के विरुद्ध स्वाधीनता संग्राम को आगे नहीं बढ़ाया जा सकेगा। भारत की प्रादेशिक भाषाओं के प्रति गांधी जी का रुख उदासीनता का नहीं था। वह स्वयं गुजराती भाषी थे, किसी अंग्रेजीपरस्त काँग्रेसी से अंग्रेजी भाषा के ज्ञान में उन्नीस नहीं थे, लेकिन अंग्रेजों के विरुद्ध स्वाधीनता संग्राम छेड़ने के बाद अपने अनुभवों से यह ज्ञान प्राप्त किया कि अगर ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध स्वाधीनता संग्राम को पूरे देश में एक साथ आगे बढ़ाया जा सकता है, तो केवल हिंदी भाषा में, क्योंकि हिंदी कई शताब्दियों से भारत की संपर्क भाषा चली आ रही थी।

भाषा और साहित्य
हिन्दी भाषा जब अस्तित्व में आई तब भारतीय राजनीति का संक्रमण काल था। इस कारण भारतीय साहित्य या हिन्दी साहित्य भी प्रभावित हुआ। राजनैतिक गुलामी के कारण साहित्य पर बहुत प्रभाव पडा। जहाँ साहित्य समाज की वास्तविकता से जनता को अवगत कराता था, उनका मार्गदर्शन करता था, प्रेरित करता था वहीं साहित्य चारणों की परम्परा में चला गया। मुगलकाल में रीति सिद्ध और रीति मुक्त कवियों का उदय हुआ। अंग्रेजों के काल में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का युग प्रारम्भ हुआ जिसे आधुनिक हिन्दी का काल भी कहा जाता है। भारतेन्दु का काल 1850 से 1884 का काल माना जाता है और इसके बाद
प्रेमचन्द, जैनेन्द्र, जयशंकर प्रसाद, फणीश्वर नाथ रेणु, सचिदानन्द वात्स्यायन, महादेवी आदि का काल रहा। इस काल में अंग्रेजों ने अंग्रेजी और ईसाइयत के प्रचार के लिए कॉलेज खोलने प्रारम्भ किए। समाचार पत्रों ने भी अपनी जगह बनाना प्रारम्भ किया, इस कारण साहित्य पद्य से निकलकर गद्य तक आ गया। अतः भारतेन्दु के काल को आधुनिक काल कहा गया। इसमें निबंध, नाटक, एकांकी, उपन्यास, कहानी, संस्मरण, रेखा चित्र, समालोचना आदि का विकास हुआ।
संस्कृत भाषा में जब से व्याकरण की अनिवार्यता लागू की गयी तब से संस्कृत भाषा के विस्तार पर विराम लग गया अतः हिन्दी भाषा के विकास में अन्य भाषाओं एवं व्याकरण का कठोर अनुशासन नहीं होने से वह वर्तमान तक विस्तार लेती चली गयी। स्वतंत्रता के समय हिन्दी भाषा को राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता मिली। यही कारण है कि आज हिन्दी सम्पूर्ण भारत में बोली और समझी जा रही है। हिन्दी आज भारत में 18 करोड लोगों की मातृभाषा है और 30 करोड लोगों ने द्वितीय भाषा के रूप में हिन्दी को स्थान दिया है। विदेशों में भी अमेरिका, मारिशस, साउथ अफ्रीका, यमन, युगाण्डा, सिंगापुर, नेपाल, न्यूजीलेण्ड, जर्मनी आदि देशों में भी भारतीय मूल के निवासियों की भाषा हिन्दी ही है। भारत से गए अप्रवासी भारतीयों ने भी हिन्दी को अपनी भाषा बनाया हुआ है अतः आज हिन्दी दुनिया के प्रत्येक कोने में बोली जाती है।


स्वर्गीय डॉ कामिल बुल्के का जन्म सन् 1909 में बेल्जियम के ‘रैम्सचौपल’ नामक गांव में हुआ था और उनका देहावसान 17 अगस्त सन् 1982 में नई दिल्ली, भारत में हुआ। बुल्के जी आरंभ से ही आध्यात्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। यद्यपि सन् 1930 में उन्होंने लुधेन विश्वविद्यालय से इंजीनियरिंग की डिग्री ली, परंतु उनकी धार्मिक प्रवृत्तियों ने उन्हें सन् 1930 में जेसुएट-1 की सदस्यता लेने को प्रेरित किया। सन् 1932 में उन्होंने रोम के ग्रिगोरियन विश्वविद्यालय से दर्शन शास्त्रा में एम.ए किया। सन् 1934-35 में मिशनरी कार्यों के लिए वे भारत आए। भारत में कार्य करना उन्हें इतना प्रेरणादायक लगा कि वे भारत में ही बस गए। शुरुआती दौर में उन्होंने दार्जिलिंग के एक स्कूल में गणित पढ़ाते हुए खड़ी बोली, ब्रज और अवधी सीखी। सन् 1938 में सीतागढ़, हजारीबाग में पंडित बदरीदत्त शास्त्री से हिंदी और संस्कृत सीखी। सन् 1940 में प्रयाग से विशारद की परीक्षा पास की और फिर सन् 1942-44 में उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम.ए किया। भारतीय संस्कृति एवं साहित्य के अध्ययन की गहनता को और अधिक गहनतम करने के लिए उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से सन् 1949 में ‘रामकथा’ पर डी.फिल. किया। बाद में तुलसी दास के रामचरित मानस का गहन अध्ययन कर, सन् 1950 में उन्होंने ‘राम कथा की उत्पत्ति और विकास’ पर पी.एच.डी की। उसी वर्ष ही वे ‘बिहार राष्ट्र भाषा परिषद्’ के कार्य कारिणी सभा के सदस्य नियुक्त किये गए। कुछ समय बाद सन् 1972-77 तक वे भारत सरकार के ‘केंद्रीय हिंदी समिति’ के सदस्य रहे। सन् 1973 में ‘बेल्जियम रायल एकेडमी’ ने उन्हें एकेडेमी की सदस्यता दे कर सम्मानित किया। डा. कामिल बुल्के लैटिन, ग्रीक, फ्रेंच , फ्लेमिश , अंग्रेजी, हिंदी, संस्कृत जैसी विश्व की कई भाषाओं के ज्ञाता थे। गहन खोज, शोध, अध्ययन और मीमांसा आदि उनकी विशेषताएं थीं।
डा. कामिल बुल्के एक लंबे समय तक रांची के सेंट जेवियर्स कालेज में संस्कृत तथा हिंदी के विभागाध्यक्ष रहे। बाद में बहरेपन के कारण कालेज में पढ़ाने से अधिक उनकी रुचि गहन अध्ययन और स्वाध्याय में होती चली गई। डा. कामिल बुल्के का अपने समय के हिंदी भाषा के सभी चोटी के विद्वानों से संपर्क था। डा. धर्मवीर भारती, डा. जगदीश गुप्त, डा. रामस्वरूप, डा. रघुवंश, महादेवी वर्मा आदि से उनका विचार-विमर्श और संवाद होता रहता था। डा. धीरेन्द्र वर्मा को अपना प्रेरणास्रोत मानते हुए वे अपनी आत्म कथा ‘एक इसाई की आस्था, हिंदी-प्रेम और तुलसी-भक्ति 2’ में लिखते हैं, ‘‘सन् 1945 में डा. धीरेन्द्र वर्मा की प्रेरणा से मैंने एम.ए. के बाद इलाहाबाद से डा. माता प्रसाद के निरीक्षण में शोध कार्य किया।’’ इलाहाबाद के प्रवास को वे अपने जीवन का ‘द्वितीय बसंत’ कहते थे। महादेवी वर्मा को वे ‘दीदी’ और इलाहाबाद के लोगों को वे ‘मायके वाले’ कहते थे। बुल्के जी अपने समय के प्रति सजग एवं सचेत थे। भारत और भारतीयता (भारत की स्वस्थ परंपराओं) के अनन्य भक्त कामिल बुल्के जी, बौद्धिक और आध्यात्मिक होने के साथ-साथ ईसा के परम भक्त थे। साथ ही गोस्वामी तुलसीदास की राम भक्ति के सात्विक और आध्यात्मिक आयाम के प्रति उनके मन में बहुत आदर था। उनका कहना था, ‘‘जब मैं अपने जीवन पर विचार करता हूं, तो मुझे लगता है ईसा, हिंदी और तुलसीदास- ये वास्तव में मेरी साधना के तीन प्रमुख घटक हैं और मेरे लिए इन तीन तत्वों में कोई विरोध नहीं है, बल्कि गहरा संबंध है३ जहां तक विद्या तथा आस्था के पारस्परिक संबंध का प्रश्न है, तो मैं उन तीनों में कोई विरोध नहीं पाता। मैं तो समझता हूं कि भौतिकतावाद, मानव जीवन की समस्या का हल करने में असमर्थ है। मैं यह भी मानता हूं कि ‘धार्मिक विश्वास’ तर्क-वितर्क का विषय नहीं है।’
सन् 1951 में डा. कामिल बुल्के ने भारतीय नागरिकता ले ली। उनका कहना था कि हिंदी तथा भारतीय संस्कृति के प्रति उनके आकर्षण का मूल स्रोत उनके अपने विद्यार्थी जीवन के संस्कार में था। बेल्जियम देश जहां उनका जन्म हुआ था, वहां दो भाषाएं बोली जाती थीं। उत्तर में फ्लेमिश और दक्षिण में फ्रेंच। फ्लेमिश उनकी मातृ भाषा थी और फ्रेंच उनकी शिक्षा तथा देश के कार्य-प्रणाली की भाषा थी। उस समय फ्रेंच उनके देश में समृद्ध वर्ग की गौरवशाली भाषा थी। प्रथम महायुद्ध के बाद बेल्जियम में मातृ-भाषा के समर्थकों ने आंदोलन किया, किशोर कामिल बुल्के ने अपने विद्यार्थी जीवन में अपनी मातृ-भाषा तथा संस्कृति की मर्यादा के लिए आंदोलन में सक्रिय भाग लिया। उनका कहना था कि भाषा और लोक संस्कृति का परस्पर गहन संबंध है। किसी भी संस्कृति और कला-साहित्य को समझने के लिए उसकी भाषा को जानना और समझना आवश्यक है। सन् 1935 में जब वे भारत प्रवास पर आए तो उन्हें यह देख कर दुःख और आश्चर्य दोनों हुआ कि भारत के अधिकांश शिक्षित लोग अपनी सांस्कृतिक परंपराओं से अनभिज्ञ हैं। वे अंग्रेजी बोलना और विदेशी सभ्यता को अपना लेना गौरव की बात समझते हैं। वे ‘यामिनी’ और ‘दीप शिखा’ की रचयिता कवयित्री ‘महादेवी वर्मा’ का इसीलिए विशेष आदर करते थे क्योंकि वे अंग्रेजी में प्रवीण होते हुए भी, उनसे सदा अपनी मातृ भाषा में संवाद करती थीं। महादेवी वर्मा पर एक संस्मरण लिखते हुए डा. कामिल बुल्के एक जगह कहते हैं, ‘‘अंग्रेजी भाषा के कारण ही राजनीतिक परतंत्राता के साथ भारतीयों में मानसिक दासता भी आ गई है।’’ उनकी यह टिप्पणी आज के परिवेश में भी सौ फीसदी सटीक बैठती है। महादेवी वर्मा के बौद्धिक स्तर एवं विचारों से वे विशेष रूप से प्रभावित थे। उन्होंने महादेवी वर्मा को सदा अपनी बड़ी बहन माना।
उन्होंने भारत के विभिन्न प्रांतों का दौरा किया। उत्तर भारत की जीवन शैली ने उन्हें कई कारणों से प्रभावित किया। अतः अंत में अपना कार्य-क्षेत्रा उन्होंने उत्तर भारत को ही बनाया। उत्तर भारत में कार्य करने के लिए उन्होंने वहां की बोली और भाषा (हिंदी)  सीखी। डा. कामिल बुल्के का कहना था कि कला और साहित्य मानव जाति की गहन उपलब्धियां हैं, मनुष्य की उच्च कल्पनाएं तथा गहरी अनुभूतियां उनमें अभिव्यक्त होती हैं। सन् 1950 में उन्होंने खुद को और अधिक परिमार्जित एवं परिष्कृत करने के लिए इलाहाबाद विश्वविद्यालय से ‘राम कथा उत्पत्ति और विकास’ पर शोध किया। 600 पृष्ठों में लिखा गया यह शोधग्रंथ चार भागों में विभक्त है। प्रथम भाग में ‘प्राचीन राम कथा साहित्य’ का विस्तृत विवेचन है, जिसके अंतर्गत पांच अध्याय में वैदिक साहित्य, राम कथा, वाल्मीकि रामायण, महाभारत की रामकथा, बोद्ध तथा जैन रामकथा संबंधी पूर्ण परीक्षण हैं और साथ ही राम कथा एवं उत्पत्ति का विवेचन है। डा. कामिल बुल्के का तुलसी कृत ‘रामचरित मानस’ पर आधारित यह शोधप्रबंध, शोधकर्ताओं के लिए बहुमूल्य ग्रंथ और पथप्रदर्शक है। भारत एवं विश्व के बहुत से विद्वान उन्हें राम-कथा और उसकी उत्पत्ति का विशेषज्ञ मानते हैं। इसीलिए रामायण और हिंदी के सम्मेलनों और आयोजनों में वे अध्यक्षता के लिए संपूर्ण भारत में कई बार बुलाए गए।
हिंदी भाषा-साहित्य पर काम करते-करते हिंदी भाषा की शब्द-संपदा से डा. कामिल बुल्के कुछ इस तरह प्रभावित हुए कि उन्होंने एक शब्दकोश ज्मबीदपबंस म्दहसपे भ्पदकप क्पबजपवदंतल  ही बना डाला। इस शब्दकोश का इतना स्वागत हुआ कि बाद में उन्होंने अथक परिश्रम कर एक ‘संपूर्ण अंग्रेजी-हिंदी’ कोश बनाया जो आज भी हिंदी भाषा का प्रामाणिक शब्दकोश माना जाता है। शब्दकोश की प्रस्तावना में उन्होंने लिखा है, ‘‘यह कोश प्रमुख रूप से विदेशों में हिंदी सीखने वालों की समस्याओं को दूर करने के उद्देश्य से लिखा गया है, फिर भी मुझे आशा है कि यह हिंदी भाषियों के लिए भी समान रूप से उपादेय होगा। इसमें अंग्रेजी के शब्दों का उच्चारण नागरी लिपि में दिया गया है। इसमें लिप्यांतरण का पूरा विवरण आवरण के भीतरी पृष्ठों में प्रस्तुत है। वहां पाठकों को कोष में प्रयुक्त सभी संकेत चिन्हों का संकलन भी मिलेगा। इसमें अंग्रेजी के शब्दों के विभिन्न अर्थ अंक लगाकर तथा कोष्टक में अतिरिक्त संकेत देकर स्पष्ट किए गए हैं। जहां अंक लगाना अनावश्यक समझा गया है वहीं अर्धविराम द्वारा विभिन्न अर्थों का विभाजन किया गया है। सभी स्त्रीलिंग शब्दों पर ’ अंकित है और उभयलिंगी शब्दों पर ’’ अंकित है।’’ सन् 1991 तक इस शब्दकोश का 19वां संस्करण निकल चुका था। इस शब्दकोश को उन्होने अपने प्रेरणा स्रोत डा. धीरेंद्र वर्मा को समर्पित करते हुए पांचवे पन्ने पर लिखा है, ‘‘डा. धीरेन्द्र वर्मा को, जिनकी प्रेरणा तथा प्रोत्साहन से मुझे हिंदी में कार्य करने का साहस हुआ- समर्पित।’’ डा. कामिल बुल्के की तीन पुस्तकें ‘मुक्तिदाता’ (जीजस क्राईस्ट का जीवन)  सन् 1942 में, ‘राम कथा उत्पत्ति और विकास’ सन् 1950 में इलाहाबाद से छपी और ‘नया विधान’ (न्यू टेस्टामेंट का हिंदी अनुवाद)  1977 में रांची से प्रकाशित हुआ। अंतिम पुस्तक ‘ओल्ड टेस्टामेंट’ अनुवाद करते-करते वे स्वर्ग सिधार गए। डा. कामिल बुल्के हिंदी भाषा, वाल्मीकी और संत तुलसीदास के अनन्य प्रेमी एवं भक्त थे। मूलतः वे ईसाइ थे, किंतु ईसाइ धर्म और जीजस क्राइस्ट में उनकी जितनी गहन आस्था थी, हिंदू धर्म तथा राम कथा के प्रति उनका उतना ही दृढ़ लगाव था। विभिन्न धर्मों की आंतरिक एकता के वे अनन्य उपासक थे। ईसा, हिंदी और तुलसीदास उनके जीवन के स्थाई तत्व भाव थे जिस पर उनका सारा जीवन और साहित्य केंद्रित है। डा. कामिल बुल्के का जीवन, उनके विचार और दर्शन कठमुल्लाओं और कट्टरवादियों के लिए एक जीवंत सीख है। उनका ईसाइ धर्म के साथ-साथ हिंदू धर्म के प्रति अनुराग आज के विचलित संसार में एक अद्भुत उदाहरण है। शायद इसीलिए डा. कुंदन अमिताभ उन्हें ‘अनोखे साहित्यकार’ कहते हैं। ईसा-भक्त परिवार में जन्म होने के कारण, ईसा-भक्ति और प्रेम के बीज उनके हदय में उनके माता-पिता ने डाले थे। प्रेम और आस्था उनके जीवन का स्थाई भाव था। उन्होंने अपने धर्मग्रंथ ‘बाइबिल’ का गहन अध्ययन किया था, बाद में उसका हिंदी अनुवाद खंडों में ‘मुक्तिदाता’, ‘नया विधान’ और ‘नील पक्षी’ (नीलपक्षी पूर्ण करने से पूर्व ही देह त्याग दिया)  के नाम से किया।
अध्यात्म की पुकार से प्रेरित होकर उन्होंने इक्कीस वर्ष की उम्र में बड़े ही सहज मन से संन्यास लेने का संकल्प कर लिया था। संन्यास लेने से पूर्व उन्होंने अपने माता-पिता से विचार-विमर्श भी किया, माता और पिता ने बिना किसी हील-हुज्जत के उन्हें स्वीकृति दे दी। संन्यास लेने के पश्चात् चौदह वर्ष तक वे अपने माता-पिता से दूर भारत में रहे। डा. बुल्के प्रतिदिन बाईबिल के साथ-साथ रामचरितमानस का भी स्वाध्याय करते थे। रामचरित मानस उनके लिए केवल एक महाकाव्य नहीं था, वह उनके लिए एक ऐसा जीवन दर्शन था जो उन्हें अपनी आत्मा के निकट लाता था। रामचरितमानस के अयोध्याकाण्ड का पारायण करते हुए, लक्ष्मण और उनकी माता सुमित्रा के बीच हुए संवाद से अनायास ही उन्हें अपनी माता की याद आ जाती। उनकी विदुषी माता ने अपनी पहली संतान (कामिल बुल्के)  के मिशनरी बनने के संकल्प को सुनकर आंसू नहीं बहाए। पुत्रा के संकल्प से उन्हें दुःख नहीं गौरव का अनुभव हुआ था। वे लिखते हैं, ‘‘मेरी मां का उत्तर मुझे सुमित्रा के शब्दों से मिलता-जुलता उत्तर लगा, ‘‘पुत्रावती युवती जग सोई, रघुपति भगतु जासु सुत होई।’’ सन् 1938 ई. में उन्होंने रामचरित मानस तथा विनयपत्रिका को प्रथम बार आद्योपांत पढ़ा। रामायण के पारायण से उनके हृदय में गोस्वामी तुलसीदास के प्रति जो श्रद्धा उत्पन्न हुई उसमें उन्हें ऐसी आध्यात्मिक अनुभूतियां मिलीं जो आगे चल कर उनके जीवन के स्थाई भाव बन गए। साहित्य तथा धर्म के विषय में फादर बुल्के की धारणाओं (वैचारिकता)  में उस श्रद्धा भक्ति का गहरा विश्वास मिलता है जो तुलसीदास के मानस में पूरी संपूर्णता के साथ वक्त होता है।
डा. कामिल बुल्के का कहना था कि कला और साहित्य मानव जाति की गहन उपलब्धियां हैं, मनुष्य की उच्च कल्पनाएं तथा गहरी अनुभूतियां उनमें अभिव्यक्त होती हैं- इसलिए आस्तिक भी उन्हें मानव जीवन के उद्देश्य से अलग नहीं कर सकता। डा. कामिल बुल्के मानते हैं कि सृष्टि, कला और साहित्य का लक्ष्य सौंदर्य है, किंतु यह सीमित नहीं बल्कि अनंत है।
‘तमेव भान्तमनुभाति सर्वम्
तस्य भाषा सर्वमिदमं विभाति’
उन्होंने कठोपनिषद से उपरोक्त संदर्भ लेते हुए अपनी जीवनी में एक स्थान पर लिखा है, ‘‘मनुष्य के हृदय में उस अनंत सौंदर्य की अभिलाषा बनी रहती है और इस कारण वह उसके प्रतिबिम्ब के प्रति, सीमित सौंदर्य के प्रति अनिवार्य रूप से आकर्षित हो जाता है। कलाकार तथा साहित्यकार को मनुष्य की इस स्वाभाविक सौंदर्य-पिपासा को बनाए रखना तथा इसका उदारीकरण करना चाहिए, उसी में उसकी कला की सार्थकता है।’’ इस कसौटी पर तुलसीदास का साहित्य खरा उतरता है। तुलसीदास मानस को ‘स्वांतः सुखाय’ रघुनाथ गाथा मानते हैं किंतु ‘कला, कला के लिए’ आदि कला की उद्देश्यहीनता विषयक सिद्धांत उनके
मानस से कोसों दूर हैं। उनकी धारणा है कि
‘‘कीरति भनति भूति भलि सोई
सुरसरि सम सब कर हित होई’’
कामिल बुल्के का कहना था, ‘‘तुलसीदास के कारण मैंने वर्षों तक राम कथा साहित्य का अध्ययन किया है। लोक संग्रह उस महान् साहित्यिक परंपरा की एक प्रमुख विशेषता है और उस दृष्टि से तुलसीदास रामकथा-परंपरा के सर्वोत्तम प्रतिनिधि हैं। उन्होंने रामचरित के माध्यम से जिस भक्ति-मार्ग का प्रतिपादन किया है, उसमें नैतिकता तथा भक्ति के अनिवार्य संबंध पर बहुत बल दिया है।’’ अपनी और तुलसी की तुलना करते हुए डा. कामिल लिखते हैं, ‘‘तुलसी के इष्देव राम हैं और मैं ईसा को अपना इष्देव मानता हूं, फिर दोनों के भक्तिभाव में बहुत कुछ समानता पाता हूं। अंतर अवश्य है- इसका एक कारण यह भी है कि मुझमें तुलसी की चातक टेक का अभाव है।’’
वस्तुतः देखा जाए तो डा. कामिल बुल्के में भी तुलसी जैसा ही भक्ति-भाव है, प्रेम है, विनती है, समर्पण है। दोनों एक ही भक्ति-भाव और एक ही भातृ-भाव से जुड़े हए हैं। डा. कामिल बुल्के का कहना है कि मनुष्य ईश्वर का प्रतिरूप है। यदि हम मनुष्य को प्यार नहीं कर सकते तो हम ईश्वर को भी प्यार नहीं कर सकते हैं। हिंदी भाषा और साहित्य सदा डा. बुल्के का आभारी रहेगा। उन्होंने रामचरितमानस और हिंदी भाषा साहित्य को विश्व साहित्य में स्थान दिलाने का अपने जीवन काल में श्रेष्ठ प्रयास किया। उनकी हिंदी सेवा को स्वीकार करते हुए भारत सरकार ने 1974 में उन्हें पद्मश्री और बाद में, पद्म विभूषण आदि कई सम्मानों से विभूषित किया।