Monday, June 8, 2015

जीने का आधार (कहानी )


सामने वाले मकान में बिखरी रोषनी ने उसका ध्यान खींच लिया। केवल रोषनी ही नहीं चहल- पहल भी थी। झाड़ झंकाड़ों से भरा ऑंगन भी साफ सुथरा दिखाई पड़ रहा था। एक तरफ कुछ बच्चे खेल रहे थे। पीछे की ओर ढलान पर चूल्हे पर बड़ा सा भगोना रखा था। पिछले दो सालों से यह घर वीरान सा था। कल तक तो यहॉं कोई भी नहीं दिखता था। क्या वहॉं कोई नया किराएदार आ गया? कहीं आंटी ने मकान बेच तो नहीं दिया? एक अनजानी आशंका से उसका मन काम से उचट गया। उसने कंप्यूटर षटडाउन किया और शाल लपेटकर बाहर आ गई। अपने आप से प्रश्न करते उसके कदम स्वतः ही उस ओर बढ़ गए।
बगीचे से उसने देखा दिसंबर की कड़ाके की ठंड और ऐसा आयोजन तो आंटी ने पहले कभी नहीं किया था। और कल षाम तो वह उनके साथ ही थी तब भी उन्होंने इसका जिक्र नहीं किया था। जबकि उनका पूरा परिवार हॅंसता खेलता इसी घर में था और अंकल भी जीवित थे। बस एक बार इन्हीं दिनों की तो बात है षायद नवंबर, नहीं, नहीं दिसंबर का ही महीना था। ऐसी ही कड़ाके की ठंड, हाथ को हाथ नहीं सुझाई देता था। उसका मन लुढककर 4-5 साल पीछे की उस भयानक रात की तरफ चला गया। उस समय भी कुछ ऐसा ही हुआ था तीन चार दिन की रिमझिम के बाद पूरा षहर ठंड की चपेट में था। सब अपने अपने घरों में बंद होकर टीवी देख रहे थे या चाय पकोड़े का मजा लेकर रजाइयों में दुबके थे। इक्का दुक्का घरों में देर रात आने वालों की ही थोड़ी बहुत हलचल थी। वह रूम हीटर के सहारे अपने कंप्यूटर पर काम निबटा रही थी। पूरे मोहल्ले में केवल यही एक घर था जहॉं धूमधड़ाका मचा हुआ था। बहुत सारे मेहमानों से घिरी आंटी रसोइए को निर्देष दे रहीं थीं। एक तरफ अंकल अपने संबंधियों से घिरे बैठे अलाव का मजा ले रहे थे। बीच बीच में ठहाकों से पूरा मोहल्ला गॅूंज जाता। उनी कपड़ों से लदे फदे लोग यहॉं से वहॉं हो रहे थे। आंटी अंकल बेटी की षादी करके लौटे थे। बेटे की षादी तो पहले ही हो चुकी थी। वह अपनी पत्नी और बच्चे के साथ विदेष में ही सैटल हो गया था। वह भी एक माह की छुट्टी में आया हुआ था। वह हर साल दिसंबर में ही आया करता था। आंटी ने भी षायद इसीलिए दिसंबर में ही बेटी की षादी करना निष्चित किया था।
पिछले एक सप्ताह से उनके यहॉं इसी तरह का माहौल था। बस बीते दो दिन घर में षांति थी जब षादी के लिए वे लोग जयपुर गए हुए थे। आजकल बड़े षहरों और धनाढ्य वर्ग में दूसरे षहर में जाकर थीम बेस्ड षैली में विवाह का चलन है। एक बात और है जब लक्ष्मी का भंडार ओवरफ्लो होने लगता है तब ही व्यक्ति को यह सब चोचले सूझते हैं। और फिर तीन चार कमाउ लोगों को एक बेटी का विवाह करना हो तो सोने पर सुहागा। यही स्थिति यहॉं भी थी। आंटी अंकल दोनों सरकारी नौकरी से रिटायर हो चुके थे और अच्छी पेंषन का सहारा था। बेटा बहू दोनों विदेशी मुद्रा में मोटी तनख्वाह पा रहे थे। उनके यहॉं तो अक्सर हर साल बड़े सामान और गाड़ी वगैरह बदली जाती। बेटा विदेष से ढेर सारा धन लाता और पुराने सामान को बाहर निकाल फेंकता। उनकी जगह नए नए आधुनिक उपकरण आ जाते।
अचानक अंकल की आवाज सुनाई पड़ी राहुल, राहुल . . . और उनकी आवाज धीमी होती चली गई। माहौल अफरा तफरी में बदल गया। किसी ने फोन किया होगा थोड़ी ही देर में एम्बुलैंस भी आ गई। आंटी उनका सीना मल रहीं थीं। हॉस्पिटल जाते जाते अंकल ने आंटी की गोद में दम तोड़ दिया।  काली अॅंधियारी रात की निस्तब्धता के सन्नाटे को चीरती हुई आंटी की आवाज पूरे वातावरण को गमगीन कर गई। चहचहाते घर में मौत का मातम छा गया। चहकती फुदकती सबकी खैर खबर रखने वाली आंटी  एकाएक सन्नाटे की मूर्ति में बदल गईं।
उसे वह काली भयानक रात हत्यारिन लगने लगी। सब कुछ थम सा गया। चूल्हे और अलाव सब ठंडे पड़ गए। अगले दिन अंकल का अंतिम संस्कार किया गया। कोई कुछ, कोई कुछ कह रहा था। अच्छा हुआ बेटी का कन्यादान साथ साथ कर लिया दोनों ने। जे कहो बेटा यहीं था तो समय से आग मिल गई वरना धरे रहते उसके इंतजार में। ईष्वर जो करता है ठीक ही करता है। जितने मुॅंह उतनी बातें। एक एक कर सारे रिष्तेदार चले गए। छुट्टी खत्म होते ही बेटा बहू भी चले गए। आंटी की एक बूढ़ी मौसी ही कुछ महीनों तक टिकी रहीं। आंटी के भैया भाभी ने साथ चलने को बहुत समझाया पर आंटी अंकल की यादों को छोड़कर जाना नहीं चाहती थीं। बेटे बहू भी साथ चलने का आग्रह कर थक चुके थे।
फिर तो उसने नियम सा बना लिया आते जाते दिख जातीं तो उनसे पूछ लेती। किसी वस्तु की आवष्यकता होती तो ला दिया करती। एक बार  तीन चार दिन हो गए। आंटी दिखाई नहीं दीं। उसने ध्यान दिया तो ताला लगा हुआ था। रविवार के दिन वह नाष्ते के बाद देखने गई। दरवाजा खुला था और कपड़े भी सूख रहे थे। वह गेट खोलकर अंदर पहुॅंची। देखा आंटी बिस्तर पर लेटी थीं। बीमार लग रही थीं। एक लड़का सा था। पास ही बैठकर लैपटॉप पर काम कर रहा था। आंटी मुझे देखते ही उठने लगीं। पर उठ न सकीं। तीन चार दिन में ही बहुत कमजोर हो गईं थीं। उसने जल्दी से उन्हें पकड़ लिया और लिटा दिया। आंटी ने धीरे धीरे बताया कि उन्हें अचानक चक्कर आ गया था। तुम्हारा नंबर नहीं था। भैया को फोन किया। फिर उन्हीं के साथ चली गई। अब कुछ ठीक हूॅं। बस कमजोरी है। यह मेरा भतीजा है। बी ई कर रहा है। आज छुट्टी है इसकी तो मैं इसे साथ ले आई।
इतना बताते वह हॉंफने लगीं थीं। वह कुछ देर बैठकर आ गई। आंटी के भैया भाभी दोनों ही नौकरी करते थे। वे भी कब तक साथ देते। छुट्टी मिलते ही उनका बेटा उन्हें लेने आ गया। उसने मकान बेचने का पूरा इंतजाम कर लिया था। आते ही वह सामान और मकान बेचने की जद्दोजहद में लग गया। पहले उसने कार बेची। वैसे भी अंकल के जाने के बाद से वह गैरेज में बेकार खड़ी थी। बेटा जब भी आता था तब जरूरत पड़ती और उसकी धूल झड़ती। जब बेटे ने आंटी से मकान के कागजातों पर दस्तखत मॉंगे तब आंटी की चेतना जागी। वे एकदम षोले की तरह भड़क उठीं। आंटी और बेटे में काफी बहस भी हुई। एक परिवार की ढकी मुॅंदी बातें आज खुलकर उजागर हो गईं।
भैया भाभी ने भी बहुत समझाया, बेटी दामाद ने भी समझाया पर आंटी ने साइन नहीं किए और मकान का सौदा वहीं रुक गया। गुस्से से भैराए बेटे ने वह सब उगल दिया जो आज तक सीने में कहीं दबा हुआ था।
आंटी ने एक वाक्य में कहा, मैं नहीं चाहती की दूसरे देष में मेरी चिता जले। अपनी जन्मभूमि में मरना है मुझे।
भारत माता की जय३। अचानक उसका ध्यान टूटा उसने देखा बच्चे एक कतार में बैठने लगे हैं और आंटी उन्हें खाना परोस रही हैं। पूरे पॉंच साल बाद इस घर में रौनक वापस आ गई थी। उसने पास जाकर देखा झुग्गी बस्ती के 20-25 बच्चे थे जो आंटी के हाथ का बना हलुआ पूरी और सब्जी चटखारे लेकर खा रहे थे। आंटी ने मुस्कुराकर कहा, आज अंकल की पुण्य तिथि है।
वह भी आगे बढ़कर आंटी का हाथ बटाने लगी।
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’जया केतकी, 45 मंसब मंजिल रोड, भोपाल, 462001, 9826245286




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