Monday, June 8, 2015

भाषा ज्ञान


सामान्यतः भाषा को वैचारिक आदान-प्रदान का माध्यम कहा जा सकता है।
किसी प्रदेश की राज्य सरकार के द्वारा उस राज्य के अंतर्गत प्रशासनिक कार्यों को सम्पन्न करने के लिए जिस भाषा का प्रयोग किया जाता है, उसे राज्यभाषा कहते हैं। यह भाषा सम्पूर्ण प्रदेश के अधिकांश जन-समुदाय द्वारा बोली और समझी जाती है। प्रशासनिक दृष्टि से सम्पूर्ण राज्य में सर्वत्र इस भाषा को महत्त्व प्राप्त रहता है।
भारतीय संविधान में राज्यों और केन्द्रशासित प्रदेशों के लिए हिन्दी के अतिरिक्त 21 अन्य भाषाएं राजभाषा स्वीकार की गई हैं। राज्यों की विधानसभाएं बहुमत के आधार पर किसी एक भाषा को अथवा चाहें तो एक से अधिक भाषाओं को अपने राज्य की राज्यभाषा घोषित कर सकती हैं।
जब से मानव अस्तित्व में आया तब से ही भाषा का उपयोग कर रहा है चाहे वह ध्वनि के रूप में हो या सांकेतिक रूप में या अन्य किसी रूप में। भाषा हमारे लिए बोलचाल का माध्यम होती है। संप्रेषण का माध्यम होती है।
इसके द्वारा हम अपने विचार व्यक्त कर सकते हैं। बातचीत कर सकते हैं। दूसरे लोगों के विचार सुन सकते हैं। यह बिलकुल सही है क्योंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज का निर्माण मनुष्यों के पारस्परिक सहयोग से होता है। समाज में रहते हुए मानव आपस में अपनी इच्छाओं तथा विचारों का आदान-प्रदान करता है।
विचारों को व्यक्त करने के लिए उसे भाषा की आवश्यकता होती है। अतरू हम यह कह सकते हैं कि जिन ध्वनियों द्वारा मनुष्य आपस में विचार विनिमय करता है उसे भाषा कहते हैं। इसको हम इस प्रकार भी कह सकते हैं- सार्थक ध्वनियों का समूह जो हमारी अभिव्यक्ति का साधन हो, भाषा कहलाता है।
भाषा के साथ एक महत्वपूर्ण बात यह है कि भाषा केवल ध्वनि से व्यक्त नहीं होती। संकेत तथा हाव-भावों से भी व्यक्त होती है जैसे बोलते समय चेहरे की आकृति में परिवर्तन होना, हाथ तथा उँगलियाँ हिलाना।
  क्या किसी भी भाषा को राष्ट्रभाषा बनाया जा सकता है। किसी भी देश की राष्ट्रभाषा उसे ही बनाया जाता है जो उस देश में व्यापक रूप में फैली होती है। संपूर्ण देश में यह संपर्क भाषा व्यवहार में लाई जाती है।    
भाषा राष्ट्र के लिए क्यों आवश्यक है। भाषा राष्ट्र की एकता, अखंडता तथा विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यदि राष्ट्र को सशक्त बनाना है तो एक भाषा होना चाहिए। इससे धार्मिक तथा सांस्कृतिक एकता बढ़ती है। यह स्वतंत्र तथा समृद्ध राष्ट्र के लिए आवश्यक है। इसलिए प्रत्येक विकसित तथा स्वाभिमानी देश की अपनी एक भाषा अवश्य होती है जिसे राष्ट्रभाषा का गौरव प्राप्त होता है।
क्या किसी भी भाषा को राष्ट्रभाषा बनाया जा सकता है। किसी भी देश की राष्ट्रभाषा उसे ही बनाया जाता है जो उस देश में व्यापक रूप में फैली होती है। संपूर्ण देश में यह संपर्क भाषा व्यवहार में लाई जाती है।
राष्ट्रभाषा संपूर्ण देश में भावात्मक तथा सांस्कृतिक एकता स्थापित करने का प्रधान साधन होती है। इसे बोलने वालों की संख्या सबसे अधिक होती है। हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी भारत के प्रमुख राज्य जैसे मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, बिहार, राजस्थान, हरियाणा तथा हिमाचल प्रदेश में प्रमुख रूप से बोली जाती है।
राष्ट्रभाषा सम्पूर्ण राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करती है। प्रायरू वह अधिकाधिक लोगों द्वारा बोली और समझी जाने वाली भाषा होती है। प्रायरू राष्ट्रभाषा ही किसी देश की राजभाषा होती है।भाषा वह साधन है जिसके द्वारा हम अपने विचारों को व्यक्त करते है और इसके लिये हम वाचिक ध्वनियों का उपयोग करते हैं किसी भाषा की सभी ध्वनियों के प्रतिनिधि स्वन एक व्यवस्था में मिलकर एक सम्पूर्ण भाषा की अवधारणा बनाते हैं । प्रायः भाषा को लिखित रूप में व्यक्त करने के लिये लिपियों की सहायता लेनी पड़ती है। भाषा और लिपि, भाव व्यक्तीकरण के दो अभिन्न पहलू हैं। एक भाषा कई लिपियों में लिखी जा सकती है, और दो या अधिक भाषाओं की एक ही लिपि हो सकती है । उदाहरणार्थ पंजाबी, गुरूमुखी तथा शाहमुखी दोनो में लिखी जाती है जबकि हिन्दी, मराठी, संस्कृत, नेपाली इत्यादि सभी देवनागरी में लिखी जाती है।
जो देश भाषा में गुलाम हो, वह किसी बात में स्वाधीन नहीं होता और उसका चरित्र औपनिवेशिक बन जाता है। यह एक पारदर्शी कसौटी है कि चाहे वे किसी भी समुदाय के लोग हों, जिन्हें हिंदी को राष्ट्रभाषा मानने में आपत्ति है, वह भारतवर्ष को फिर से विभाजन के कगार तक जरूर पहुँचाएँगे।
लार्ड मैकाले का मानना था कि जब तक संस्कृति और भाषा के स्तर पर गुलाम नहीं बनाया जाएगा, भारतवर्ष को हमेशा के लिए या पूरी तरह, गुलाम बनाना संभव नहीं होगा। लार्ड मैकाले की सोच थी कि हिंदुस्तानियों को अँग्रेजी भाषा के माध्यम से ही सही और व्यापक अर्थों में गुलाम बनाया जा सकता है।
अंग्रेजी जानने वालों को नौकरी में प्रोत्साहन देने की लार्ड मैकाले की पहल के परिणामस्वरूप काँग्रेसियों के बीच में अंग्रेजी परस्त काँग्रेसी नेता पं. जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में एकजुट हो गए कि अंग्रेजी को शासन की भाषा से हटाना नहीं है अन्यथा वर्चस्व जाता रहेगा और देश को अंग्रेजी की ही शैली में शासित करने की योजनाएँ भी सफल नहीं हो पाएँगी
यह ऐसे अंग्रेजीपरस्त काँग्रेसी नेताओं का ही काला कारनामा था कि अंग्रेजी को जितना बढ़ावा परतंत्रता के 200 वर्षों में मिल पाया था, उससे कई गुना अधिक महत्व तथाकथित स्वाधीनता के केवल 50 वर्षों में मिल गया और आज भी निरंतर जारी है।
जबकि गांधी जी का सपना था कि अगर भारतवर्ष भाषा में एक नहीं हो सका, तो ब्रिटिश शासन के विरुद्ध स्वाधीनता संग्राम को आगे नहीं बढ़ाया जा सकेगा। भारत की प्रादेशिक भाषाओं के प्रति गांधी जी का रुख उदासीनता का नहीं था। वह स्वयं गुजराती भाषी थे, किसी अंग्रेजीपरस्त काँग्रेसी से अंग्रेजी भाषा के ज्ञान में उन्नीस नहीं थे, लेकिन अंग्रेजों के विरुद्ध स्वाधीनता संग्राम छेड़ने के बाद अपने अनुभवों से यह ज्ञान प्राप्त किया कि अगर ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध स्वाधीनता संग्राम को पूरे देश में एक साथ आगे बढ़ाया जा सकता है, तो केवल हिंदी भाषा में, क्योंकि हिंदी कई शताब्दियों से भारत की संपर्क भाषा चली आ रही थी।

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