Friday, May 22, 2009

क्या तुम डरते हो

क्या तुम डरते हो, काले घनघोर अंधेरे से, इस जग के फेरे से।
क्या तुम डरते हो, गरजते बादलों से, कड़कती बिजली से।
क्या तुम डरते हो, उफनती नदी से, बहती हवा से।
क्या तुम डरते हो , गिरते झरने से, घिरते तूफान से।
क्या तुम डरते हो, ऊंचे पहाड़ से, चलते हिंडोले से।
क्या तुम डरते हो, लम्बी सड़क से, तेज़ रफ्तार से।
क्या तुम डरते हो,खतरनाक मोड़ से, दुर्घटना से।
क्या तुम डरते हो, सपनों से, हकीकत से।
डर-डर के जीना कैसा जीना है।
डर को मन से निकाल कर जीन ही जीना है।

Wednesday, May 13, 2009

इंतजार

इंतजार रहता है, हर किसी को किसी का।
भोजन का हो चाहे भजन का ।
आने का हो चाहे जाने का।
मिलने का हो चाहे बिछड़ने का।
सब इसी उदेड-बुन मै लगे है।
कब ख़त्म हो यह सिलसिला इंतजार का।
जन्म और मृत्यु का भी इंतजार होता है।
शादी और बर्बादी का भी होता है इंतजार।
परीक्षा की डेट का करते हैं इंतजार।
फ़िर करने लगते हैं इंतजार रिजल्ट का।
कब ख़त्म हो यह सिलसिला इंतजार का।
छुट्टी का इंतजार बेसब्री से होता।
फ़िर होता कालेज खुलने का इंतजार।
पार्टी का इंतजार हर समय है रहता।
उसके बाद आता उत्सव का इंतजार।
कब ख़त्म हो यह सिलसिला इंतजार का।
बस आने का इंतजार, टिकट मिलने का इंतजार।
बस मै बैठे तो स्टाप आने का इंतजार।
क्लास मै टीचर के आने का इंतजार।
टीचर का बोरिंग लेक्चर ख़त्म होने का इंतजार।
कब ख़त्म हो यह सिलसिला इंतजार का।
लिस्ट बहुत लम्बी है, इंतजारों की ।
कभी न ख़त्म होगा सिलसिला इंतजार का.

भीगा मन


आज पहली बार भीगा मन,
इससे पहले बस तन भीगा था।
चन्द फुहारों के छींटों से,
बादल की गिरती बूंदों से।
सर्द हवाएं बेकल करतीं,
गिरती बूंदों को बिखरातीं।
न जाने क्यूँ तन पर पड़ती,
मन को कभी नहीं छू पाई।
आज मगर वो बारिश आई,
एक अनोखा संदेश लाई
तन भीगा, मन भीग गया है,
कोई इसको जान न पाया।
मैंने क्या खोया क्या पाया?