Tuesday, December 8, 2015

विन्नी ................................. कहानी

वह तड़के ही घर से निकल पड़ी थी। कुछ दूर चलने के बाद उसे मंदिर की घंटी सुनाई दी। उसके कदम स्वतः ही उस ओर बढ़ गए। मंदिर के सामने पहुॅंचकर वह कुछ देर खड़ी रही। भीतर जाने का मन नहीं हुआ उसका। वह सीढ़ियों पर ही बैठ गई सामने झील में उठती लहरें उसके अंदर चल रहे तूफान का आकार बता रहीं थीं। जैसे ही मंदिर में आरती समाप्त हुई वह बोझिल कदमों से सीढ़ियॉं उतरने लगी। तीन चार सीढ़ी उपर ही रुककर वह गौर से झील में देखने लगी। एक दृढ़ निष्चय से उसने छलॉंग लगाई हवा में उछली। झील में गिरती इससे पहले ही दो मजबूत हाथों ने उसे जकड़ लिया। वह बेहोष हो गई थी। जब ऑंखें खोलीं तो देखा मंदिर के पंडित जी लोटा हाथ में लिए उसके मुॅंह पर पानी के छींटे डाल रहे हैं। उसने उठने का प्रयास किया पर शरीर ने साथ नहीं दिया। पंडित जी ने उसे सहारा देकर उठाया। मंदिर के ऑंगन में बनी पट्टी पर उसे बिठाकर कुछ प्रसाद खाने को और पानी पीने को दिया। उसे सामान्य होते देख पंडित जी ने कहा, मंदिर के पीछे एक कमरा है, तुम जब तक चाहो उसमें रह सकती है। पास ही मेरा घर है मैं तुम्हारे लिए कपड़े और कुछ खाने को लेकर आता हूॅं। बिना उसके उत्तर की प्रतीक्षा किए वे चल दिए। वह उसी जगह बैठे पंडित जी को जाता हुआ देखती रही।
कुछ ही देर में पंडित जी लौट आए। ये लो कपड़े और भोजन। कमरे में जाकर स्नान कर लो और भोजन भी। फिर इच्छा हो तो मंदिर में आ जाना। वह यंत्रवत सी उठी और पंडित जी द्वारा बताई दिषा में चल दी। स्नान कर उसने अपने कपड़े धोकर बाहर सुखा दिए। बिना भोजन किए आकर उसी पट्टी पर बैठ गई।
दोपहर की आरती के बाद मंदिर बंद कर पंडित जी अपने घर चले गए। उससे बिना कुछ कहे। वह भी कुछ देर बाद अपने कमरे में आ गई। भोजन करते ही उसे नींद आने लगी और पास पड़ी खटिया पर वह लेटते ही गहरी नींद सो गई। उसे ऐसा लग रहा था जैसे जन्मों की उनींदी हो और शायद थी भी।
दरवाजे पर दस्तक सुनकर उसकी ऑंख खुल गई। पंडित जी थे। उनके साथ पंडितानी थी। वह उठकर बैठ गई। पंडितानी भी खाट पर उसके साथ बैठ गई। पंडित जी मंदिर में चले गए। एक लड़का दो गिलासों में चाय लेकर आया और दोनों को देकर चला गया।
क्या नाम है तुम्हारा?
विनीता।
हम तुम्हें विन्नी बुलाएॅंगे।
उसने मौन स्वीकृति दे दी।
चलो मंदिर में चलकर बैठेंगे। उसके हाथ से चाय का गिलास लेते हुए पंडितानी बोली और वह यंत्रवत सी उनके पीछे हो ली। कई घंटे वे लोग ऐसे ही बैठे रहे। आरती के बाद वे उसे कक्ष में छोड़कर चली गईं। विन्नी उनके स्नेह से द्रवित हो उन्हें दीदी बुलाने लगी। वह स्वतः ही मंदिर की साफ सफाई करने लगी। बरतन और कपड़े धोने लगी। सारा सामान यथा स्थान रखती। प्रसाद सहेजती, हार फूल समेटती। एक माह इसी तरह गुजर गया। एक दिन वह कमरे में ही थी उसे मासिक था। वह मंदिर नहीं गई। वह कमरा ठीक कर रही थी। तभी दीदी आ गई।
क्या कर रही हो विन्नी, आज मंदिर नहीं आई।
नहीं वह मुझे मंदिर में नहीं जाना, मासिक से हूॅं।
सब ऐसे ही चल रहा था। पर वह इस एकाकी जीवन से उकता गई थी। आज तो उसे रोना ही आ गया। वह घंटों रोती रही। कब ऑंख लग गई पता नहीं। वह जागी तो शाम ढल चुकी थी। दो तीन दिनों से दीदी भी नहीं आई थी। वह उठी और पंडित जी के घर की ओर चल दी। पहले तो कभी गई नहीं थी पर रोज पंडित जी इस ओर ही जाते थे। थोड़ी ही दूर पर एक मकान के ऑंगन में दीदी बैठी दिखाई दे गई। दो मिनट वह गेट पर ही खड़ी देखती रही। दीदी सीढ़ी पर बैठी थी बिखरे बाल, उदास चेहरा। जाने किन ख्यालों में थी। वह गेट खोलकर दाखिल हो गई और उनके सामने सीढ़ी पर बैठ गई तब कहीं दनका ध्यान टूटा।
क्या हुआ दीदी, तबियत तो ठीक है न?
दो दिन से आई भी नहीं, मुझे ही बुला लिया होता।
दीदी फफक फफक कर रो पड़ी। क्या बताउॅं विन्नी, औरत का जीवन तो नर्क है। भगवान अगले जन्म में मुझे औरत न बनाए।
उनके ऑंसू पोंछते हुए विन्नी बोली, ऐसा क्यों कहती हो। आखिर ऐसा क्या हुआ? मुझे बताओ।
दीदी ने रोते रोते जो कुछ बताया उससे विन्नी के पैरों के नीचे की जमीन हिल गई। पंडित जी से उनका विवाह हुए दस वर्ष हो चुके थे पर अभी तक उनका कोई बच्चा नहीं था। डॉ. के मुताबिक पंडितानी मॉं नहीं बन सकती थी। उसने पंडित जी की चोरी से जॉंच करा ली थी। पंडित जी ज्यादा पढ़े लिखे नहीं थे और डॉक्टरी में विश्वास नहीं करते थे। बस उन्हें भगवान पर भरोसा था। विन्नी को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? उसे लगा ईश्वर की यह कैसी सृष्टि है? एक वह है जिसमें कोई कमी नहीं पर उसका पति नपुंसक है और रोज रोज की मार से बचने के लिए ही उसे घर छोड़ना पड़ा। एक यह दीदी और पंडित जी जहॉं पंडित जी में कोई कमी नहीं।
वह चुपचाप दीदी की पीठ सहलाती रही। कुछ देर बाद विन्नी उन्हें अंदर ले गई। फिर उसने खाना बनाया और पंडित जी का इंतजार करने लगी। पंडित जी आए हाथ मुॅंह धोकर सीधे रसोई में गए, देखा गरम गरम खाना तैयार है। दनदनाते हुए बाहर आए पर विन्नी को देखकर उनके कदम ठिठक गए। हड़बड़ाकर बोले, तुम, तुम यहॉं कैसे?
विन्नी ने कोई जवाब नहीं दिया। उसने दो थालियों में खाना परोसा, पीढ़ा लगाया और उस पर एक थाली पंडित जी के लिए रखी और दूसरी दीदी को दी। उनके बाद उसने भी खाना खाया और अपने कमरे पर आ गई। उस रात विन्नी को बिल्कुल भी नींद नहीं आई। वह रात भर उन दोनों के बारे में ही सोचती रही। उसने दृढ़ निश्चय कर लिया कि अगले दिन पंडित जी से वह इस विषय पर जरूर बात करेगी।
सुबह उसने दरवाजा खोला तो देखा दिन चढ़ गया था। पंडित जी पूजा में लगे थे। उसने स्नान किया और मंदिर में जाकर बैठ गई। मन कल की बात से खिन्न था सो कुछ करने की इच्छा नहीं हुई। फिर उठी और पंडित जी के घर की ओर चल दी। उसने सोचा पंडित जी कम पढ़े लिखे हैं कहीं उसकी इस बात का मजाक न बना दें। वह दीदी के पास पहुॅंची। दीदी धूप में बैठी बाल सुखा रही थी। लंबे, घने, काले केश, दीदी बहुत सुंदर लग रही थी। हमेशा विन्नी ने उन्हें तेल लगे बालों की सख्त चोटी में ही देखा था जिसमें सिंदूर से भरी चौड़ी मॉंग दो देशों का विभाजन करती सी लगती।
बिना किसी भूमिका के विन्नी ने कहना शुरु किया, दीदी आप और मैं दोनों एक ही पीड़ा के भोगी हैं।
क्या मतलब है तुम्हारा? यानी तुम भी मेरी तरह . . .
नहीं! पर मेरे पास हमारी समस्या का हल है। अगर आप इजाजत दें तो . . .
  तुम जो कहोगी मैं करूॅंगी। बताओ मुझे क्या करना होगा . . .
एक उपाय है। मैं पंडित ही के बच्चे की मॉं बनकर आपको मातृत्व सुख देना चाहती हॅूं, इससे हम दोनों की अभिलाषा पूरी हो जाएगी। आप पंडित जी से बात करके उन्हें समझा देना।
ठीक है मैं तैयार हूॅं।
पीछे से पंडित जी का स्वर सुनकर दोनों चौंक पड़ीं।
मैंने तुम्हें इधर आते देखा तो मैं भी चला आया। मैं तो सिर्फ भोजन करने आया था पर अब मुझे भूख नहीं। शायद प्रभु ने इसीलिए तुम्हें हमसे मिलाया है। हॉं बोलो भाग्यवान हॉं! मुझे विन्नी का प्रस्ताव स्वीकार है।
गदगद होकर पंडित जी ने पंडितानी को गले लगा लिया।
विन्नी ने रसोई में जाकर खाना परोसा तीनों ने साथ ही खाया और पंडित जी मंदिर चले गए। विन्नी दीदी के साथ निकल पड़ी। अब उन्हें तलाश थी एक ऐसी महिला चिकित्सक की जो उनकी योजना को साकार कर सके। अभी तक विन्नी ने आवीएफ और सरोगेसी के बारे में सुना और पढ़ा ही था परंतु विस्तृत जानकारी तो डॉक्टर ही दे सकता है। दो तीन दिन भटकने के बाद एक मैडम मिल गईं जिनके नर्सिंग होम में सारी सुविधाएॅं थीं। उन्होंने मदद का आश्वासन दिया और तीनों को अगले रविवार को बुलाया। डॉक्टर ने विन्नी और पंडित जी की कुछ जॉंचें करवाईं। कुछ घंटे बाद डॉक्टर ने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर पंडित जी के शुक्राणुओं को विन्नी के अंडकोश में स्थापित कर दिया।
एक माह बाद रिपोर्ट पॉसिटिव आई। नौ माह पूरे होने पर विन्नी ने दो खूबसूरत बेटियों को जन्म दिया। विन्नी ने दो परिवारों को पूरा कर दिया था। एक बेटी उसने दीदी की गोद में देते हुए कहा, दीदी यह आज से आपकी बेटी है।
और इसका नाम गीता है। तुम्हारी बेटी का नाम कविता रखेंगे। पंडित जी ने कहा।
दो साल बीत गए। पंडित जी दोनों बेटियों की जरूरतों का पूरा ध्यान रखते। दोनों ही बेटियॉं अपनी मॉं के साथ बड़ी हो रहीं थीं। एक शाम कविता और गीता मंदिर प्रांगण में खेल रहीं थी। पास ही विन्नी मंदिर के बर्तन साफ कर रही थी। अचानक एक नौजवान आया और विन्नी के पैर पकड़कर रोने लगा, मुझे माफ कर दो विन्नी। मुझे अपनी गलती का पता चल गया है। चलो मैं तुम्हें लेने आया हूॅं। तभी कविता दौड़ती हुई आई और विन्नी से लिपटते हुए बोली, मॉं घर चलो मुझे प्यास लगी है।
विन्नी यह बेटी? क्या तुम्हारी बेटी है यह . . . ?
पीछे बैठी पंडितानी जो अब तक दोनों की बाते सुन रही थी सारा माजरा समझ चुकी थी बोली, हॉं भाईसाहब यह विन्नी की ही बेटी है। आप मेरे साथ घर चलिए मैं आपको सब विस्तार से बताउॅंगी।