क्या तुम डरते हो, काले घनघोर अंधेरे से, इस जग के फेरे से।
क्या तुम डरते हो, गरजते बादलों से, कड़कती बिजली से।
क्या तुम डरते हो, उफनती नदी से, बहती हवा से।
क्या तुम डरते हो , गिरते झरने से, घिरते तूफान से।
क्या तुम डरते हो, ऊंचे पहाड़ से, चलते हिंडोले से।
क्या तुम डरते हो, लम्बी सड़क से, तेज़ रफ्तार से।
क्या तुम डरते हो,खतरनाक मोड़ से, दुर्घटना से।
क्या तुम डरते हो, सपनों से, हकीकत से।
डर-डर के जीना कैसा जीना है।
डर को मन से निकाल कर जीन ही जीना है।
Friday, May 22, 2009
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1 comment:
लिखा नहीं कुछ फिर क्यों डरना।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
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