भाषा और साहित्य
हिन्दी भाषा जब अस्तित्व में आई तब भारतीय राजनीति का संक्रमण काल था। इस कारण भारतीय साहित्य या हिन्दी साहित्य भी प्रभावित हुआ। राजनैतिक गुलामी के कारण साहित्य पर बहुत प्रभाव पडा। जहाँ साहित्य समाज की वास्तविकता से जनता को अवगत कराता था, उनका मार्गदर्शन करता था, प्रेरित करता था वहीं साहित्य चारणों की परम्परा में चला गया। मुगलकाल में रीति सिद्ध और रीति मुक्त कवियों का उदय हुआ। अंग्रेजों के काल में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का युग प्रारम्भ हुआ जिसे आधुनिक हिन्दी का काल भी कहा जाता है। भारतेन्दु का काल 1850 से 1884 का काल माना जाता है और इसके बाद
प्रेमचन्द, जैनेन्द्र, जयशंकर प्रसाद, फणीश्वर नाथ रेणु, सचिदानन्द वात्स्यायन, महादेवी आदि का काल रहा। इस काल में अंग्रेजों ने अंग्रेजी और ईसाइयत के प्रचार के लिए कॉलेज खोलने प्रारम्भ किए। समाचार पत्रों ने भी अपनी जगह बनाना प्रारम्भ किया, इस कारण साहित्य पद्य से निकलकर गद्य तक आ गया। अतः भारतेन्दु के काल को आधुनिक काल कहा गया। इसमें निबंध, नाटक, एकांकी, उपन्यास, कहानी, संस्मरण, रेखा चित्र, समालोचना आदि का विकास हुआ।
संस्कृत भाषा में जब से व्याकरण की अनिवार्यता लागू की गयी तब से संस्कृत भाषा के विस्तार पर विराम लग गया अतः हिन्दी भाषा के विकास में अन्य भाषाओं एवं व्याकरण का कठोर अनुशासन नहीं होने से वह वर्तमान तक विस्तार लेती चली गयी। स्वतंत्रता के समय हिन्दी भाषा को राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता मिली। यही कारण है कि आज हिन्दी सम्पूर्ण भारत में बोली और समझी जा रही है। हिन्दी आज भारत में 18 करोड लोगों की मातृभाषा है और 30 करोड लोगों ने द्वितीय भाषा के रूप में हिन्दी को स्थान दिया है। विदेशों में भी अमेरिका, मारिशस, साउथ अफ्रीका, यमन, युगाण्डा, सिंगापुर, नेपाल, न्यूजीलेण्ड, जर्मनी आदि देशों में भी भारतीय मूल के निवासियों की भाषा हिन्दी ही है। भारत से गए अप्रवासी भारतीयों ने भी हिन्दी को अपनी भाषा बनाया हुआ है अतः आज हिन्दी दुनिया के प्रत्येक कोने में बोली जाती है।
स्वर्गीय डॉ कामिल बुल्के का जन्म सन् 1909 में बेल्जियम के ‘रैम्सचौपल’ नामक गांव में हुआ था और उनका देहावसान 17 अगस्त सन् 1982 में नई दिल्ली, भारत में हुआ। बुल्के जी आरंभ से ही आध्यात्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। यद्यपि सन् 1930 में उन्होंने लुधेन विश्वविद्यालय से इंजीनियरिंग की डिग्री ली, परंतु उनकी धार्मिक प्रवृत्तियों ने उन्हें सन् 1930 में जेसुएट-1 की सदस्यता लेने को प्रेरित किया। सन् 1932 में उन्होंने रोम के ग्रिगोरियन विश्वविद्यालय से दर्शन शास्त्रा में एम.ए किया। सन् 1934-35 में मिशनरी कार्यों के लिए वे भारत आए। भारत में कार्य करना उन्हें इतना प्रेरणादायक लगा कि वे भारत में ही बस गए। शुरुआती दौर में उन्होंने दार्जिलिंग के एक स्कूल में गणित पढ़ाते हुए खड़ी बोली, ब्रज और अवधी सीखी। सन् 1938 में सीतागढ़, हजारीबाग में पंडित बदरीदत्त शास्त्री से हिंदी और संस्कृत सीखी। सन् 1940 में प्रयाग से विशारद की परीक्षा पास की और फिर सन् 1942-44 में उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम.ए किया। भारतीय संस्कृति एवं साहित्य के अध्ययन की गहनता को और अधिक गहनतम करने के लिए उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से सन् 1949 में ‘रामकथा’ पर डी.फिल. किया। बाद में तुलसी दास के रामचरित मानस का गहन अध्ययन कर, सन् 1950 में उन्होंने ‘राम कथा की उत्पत्ति और विकास’ पर पी.एच.डी की। उसी वर्ष ही वे ‘बिहार राष्ट्र भाषा परिषद्’ के कार्य कारिणी सभा के सदस्य नियुक्त किये गए। कुछ समय बाद सन् 1972-77 तक वे भारत सरकार के ‘केंद्रीय हिंदी समिति’ के सदस्य रहे। सन् 1973 में ‘बेल्जियम रायल एकेडमी’ ने उन्हें एकेडेमी की सदस्यता दे कर सम्मानित किया। डा. कामिल बुल्के लैटिन, ग्रीक, फ्रेंच , फ्लेमिश , अंग्रेजी, हिंदी, संस्कृत जैसी विश्व की कई भाषाओं के ज्ञाता थे। गहन खोज, शोध, अध्ययन और मीमांसा आदि उनकी विशेषताएं थीं।
डा. कामिल बुल्के एक लंबे समय तक रांची के सेंट जेवियर्स कालेज में संस्कृत तथा हिंदी के विभागाध्यक्ष रहे। बाद में बहरेपन के कारण कालेज में पढ़ाने से अधिक उनकी रुचि गहन अध्ययन और स्वाध्याय में होती चली गई। डा. कामिल बुल्के का अपने समय के हिंदी भाषा के सभी चोटी के विद्वानों से संपर्क था। डा. धर्मवीर भारती, डा. जगदीश गुप्त, डा. रामस्वरूप, डा. रघुवंश, महादेवी वर्मा आदि से उनका विचार-विमर्श और संवाद होता रहता था। डा. धीरेन्द्र वर्मा को अपना प्रेरणास्रोत मानते हुए वे अपनी आत्म कथा ‘एक इसाई की आस्था, हिंदी-प्रेम और तुलसी-भक्ति 2’ में लिखते हैं, ‘‘सन् 1945 में डा. धीरेन्द्र वर्मा की प्रेरणा से मैंने एम.ए. के बाद इलाहाबाद से डा. माता प्रसाद के निरीक्षण में शोध कार्य किया।’’ इलाहाबाद के प्रवास को वे अपने जीवन का ‘द्वितीय बसंत’ कहते थे। महादेवी वर्मा को वे ‘दीदी’ और इलाहाबाद के लोगों को वे ‘मायके वाले’ कहते थे। बुल्के जी अपने समय के प्रति सजग एवं सचेत थे। भारत और भारतीयता (भारत की स्वस्थ परंपराओं) के अनन्य भक्त कामिल बुल्के जी, बौद्धिक और आध्यात्मिक होने के साथ-साथ ईसा के परम भक्त थे। साथ ही गोस्वामी तुलसीदास की राम भक्ति के सात्विक और आध्यात्मिक आयाम के प्रति उनके मन में बहुत आदर था। उनका कहना था, ‘‘जब मैं अपने जीवन पर विचार करता हूं, तो मुझे लगता है ईसा, हिंदी और तुलसीदास- ये वास्तव में मेरी साधना के तीन प्रमुख घटक हैं और मेरे लिए इन तीन तत्वों में कोई विरोध नहीं है, बल्कि गहरा संबंध है३ जहां तक विद्या तथा आस्था के पारस्परिक संबंध का प्रश्न है, तो मैं उन तीनों में कोई विरोध नहीं पाता। मैं तो समझता हूं कि भौतिकतावाद, मानव जीवन की समस्या का हल करने में असमर्थ है। मैं यह भी मानता हूं कि ‘धार्मिक विश्वास’ तर्क-वितर्क का विषय नहीं है।’
सन् 1951 में डा. कामिल बुल्के ने भारतीय नागरिकता ले ली। उनका कहना था कि हिंदी तथा भारतीय संस्कृति के प्रति उनके आकर्षण का मूल स्रोत उनके अपने विद्यार्थी जीवन के संस्कार में था। बेल्जियम देश जहां उनका जन्म हुआ था, वहां दो भाषाएं बोली जाती थीं। उत्तर में फ्लेमिश और दक्षिण में फ्रेंच। फ्लेमिश उनकी मातृ भाषा थी और फ्रेंच उनकी शिक्षा तथा देश के कार्य-प्रणाली की भाषा थी। उस समय फ्रेंच उनके देश में समृद्ध वर्ग की गौरवशाली भाषा थी। प्रथम महायुद्ध के बाद बेल्जियम में मातृ-भाषा के समर्थकों ने आंदोलन किया, किशोर कामिल बुल्के ने अपने विद्यार्थी जीवन में अपनी मातृ-भाषा तथा संस्कृति की मर्यादा के लिए आंदोलन में सक्रिय भाग लिया। उनका कहना था कि भाषा और लोक संस्कृति का परस्पर गहन संबंध है। किसी भी संस्कृति और कला-साहित्य को समझने के लिए उसकी भाषा को जानना और समझना आवश्यक है। सन् 1935 में जब वे भारत प्रवास पर आए तो उन्हें यह देख कर दुःख और आश्चर्य दोनों हुआ कि भारत के अधिकांश शिक्षित लोग अपनी सांस्कृतिक परंपराओं से अनभिज्ञ हैं। वे अंग्रेजी बोलना और विदेशी सभ्यता को अपना लेना गौरव की बात समझते हैं। वे ‘यामिनी’ और ‘दीप शिखा’ की रचयिता कवयित्री ‘महादेवी वर्मा’ का इसीलिए विशेष आदर करते थे क्योंकि वे अंग्रेजी में प्रवीण होते हुए भी, उनसे सदा अपनी मातृ भाषा में संवाद करती थीं। महादेवी वर्मा पर एक संस्मरण लिखते हुए डा. कामिल बुल्के एक जगह कहते हैं, ‘‘अंग्रेजी भाषा के कारण ही राजनीतिक परतंत्राता के साथ भारतीयों में मानसिक दासता भी आ गई है।’’ उनकी यह टिप्पणी आज के परिवेश में भी सौ फीसदी सटीक बैठती है। महादेवी वर्मा के बौद्धिक स्तर एवं विचारों से वे विशेष रूप से प्रभावित थे। उन्होंने महादेवी वर्मा को सदा अपनी बड़ी बहन माना।
उन्होंने भारत के विभिन्न प्रांतों का दौरा किया। उत्तर भारत की जीवन शैली ने उन्हें कई कारणों से प्रभावित किया। अतः अंत में अपना कार्य-क्षेत्रा उन्होंने उत्तर भारत को ही बनाया। उत्तर भारत में कार्य करने के लिए उन्होंने वहां की बोली और भाषा (हिंदी) सीखी। डा. कामिल बुल्के का कहना था कि कला और साहित्य मानव जाति की गहन उपलब्धियां हैं, मनुष्य की उच्च कल्पनाएं तथा गहरी अनुभूतियां उनमें अभिव्यक्त होती हैं। सन् 1950 में उन्होंने खुद को और अधिक परिमार्जित एवं परिष्कृत करने के लिए इलाहाबाद विश्वविद्यालय से ‘राम कथा उत्पत्ति और विकास’ पर शोध किया। 600 पृष्ठों में लिखा गया यह शोधग्रंथ चार भागों में विभक्त है। प्रथम भाग में ‘प्राचीन राम कथा साहित्य’ का विस्तृत विवेचन है, जिसके अंतर्गत पांच अध्याय में वैदिक साहित्य, राम कथा, वाल्मीकि रामायण, महाभारत की रामकथा, बोद्ध तथा जैन रामकथा संबंधी पूर्ण परीक्षण हैं और साथ ही राम कथा एवं उत्पत्ति का विवेचन है। डा. कामिल बुल्के का तुलसी कृत ‘रामचरित मानस’ पर आधारित यह शोधप्रबंध, शोधकर्ताओं के लिए बहुमूल्य ग्रंथ और पथप्रदर्शक है। भारत एवं विश्व के बहुत से विद्वान उन्हें राम-कथा और उसकी उत्पत्ति का विशेषज्ञ मानते हैं। इसीलिए रामायण और हिंदी के सम्मेलनों और आयोजनों में वे अध्यक्षता के लिए संपूर्ण भारत में कई बार बुलाए गए।
हिंदी भाषा-साहित्य पर काम करते-करते हिंदी भाषा की शब्द-संपदा से डा. कामिल बुल्के कुछ इस तरह प्रभावित हुए कि उन्होंने एक शब्दकोश ज्मबीदपबंस म्दहसपे भ्पदकप क्पबजपवदंतल ही बना डाला। इस शब्दकोश का इतना स्वागत हुआ कि बाद में उन्होंने अथक परिश्रम कर एक ‘संपूर्ण अंग्रेजी-हिंदी’ कोश बनाया जो आज भी हिंदी भाषा का प्रामाणिक शब्दकोश माना जाता है। शब्दकोश की प्रस्तावना में उन्होंने लिखा है, ‘‘यह कोश प्रमुख रूप से विदेशों में हिंदी सीखने वालों की समस्याओं को दूर करने के उद्देश्य से लिखा गया है, फिर भी मुझे आशा है कि यह हिंदी भाषियों के लिए भी समान रूप से उपादेय होगा। इसमें अंग्रेजी के शब्दों का उच्चारण नागरी लिपि में दिया गया है। इसमें लिप्यांतरण का पूरा विवरण आवरण के भीतरी पृष्ठों में प्रस्तुत है। वहां पाठकों को कोष में प्रयुक्त सभी संकेत चिन्हों का संकलन भी मिलेगा। इसमें अंग्रेजी के शब्दों के विभिन्न अर्थ अंक लगाकर तथा कोष्टक में अतिरिक्त संकेत देकर स्पष्ट किए गए हैं। जहां अंक लगाना अनावश्यक समझा गया है वहीं अर्धविराम द्वारा विभिन्न अर्थों का विभाजन किया गया है। सभी स्त्रीलिंग शब्दों पर ’ अंकित है और उभयलिंगी शब्दों पर ’’ अंकित है।’’ सन् 1991 तक इस शब्दकोश का 19वां संस्करण निकल चुका था। इस शब्दकोश को उन्होने अपने प्रेरणा स्रोत डा. धीरेंद्र वर्मा को समर्पित करते हुए पांचवे पन्ने पर लिखा है, ‘‘डा. धीरेन्द्र वर्मा को, जिनकी प्रेरणा तथा प्रोत्साहन से मुझे हिंदी में कार्य करने का साहस हुआ- समर्पित।’’ डा. कामिल बुल्के की तीन पुस्तकें ‘मुक्तिदाता’ (जीजस क्राईस्ट का जीवन) सन् 1942 में, ‘राम कथा उत्पत्ति और विकास’ सन् 1950 में इलाहाबाद से छपी और ‘नया विधान’ (न्यू टेस्टामेंट का हिंदी अनुवाद) 1977 में रांची से प्रकाशित हुआ। अंतिम पुस्तक ‘ओल्ड टेस्टामेंट’ अनुवाद करते-करते वे स्वर्ग सिधार गए। डा. कामिल बुल्के हिंदी भाषा, वाल्मीकी और संत तुलसीदास के अनन्य प्रेमी एवं भक्त थे। मूलतः वे ईसाइ थे, किंतु ईसाइ धर्म और जीजस क्राइस्ट में उनकी जितनी गहन आस्था थी, हिंदू धर्म तथा राम कथा के प्रति उनका उतना ही दृढ़ लगाव था। विभिन्न धर्मों की आंतरिक एकता के वे अनन्य उपासक थे। ईसा, हिंदी और तुलसीदास उनके जीवन के स्थाई तत्व भाव थे जिस पर उनका सारा जीवन और साहित्य केंद्रित है। डा. कामिल बुल्के का जीवन, उनके विचार और दर्शन कठमुल्लाओं और कट्टरवादियों के लिए एक जीवंत सीख है। उनका ईसाइ धर्म के साथ-साथ हिंदू धर्म के प्रति अनुराग आज के विचलित संसार में एक अद्भुत उदाहरण है। शायद इसीलिए डा. कुंदन अमिताभ उन्हें ‘अनोखे साहित्यकार’ कहते हैं। ईसा-भक्त परिवार में जन्म होने के कारण, ईसा-भक्ति और प्रेम के बीज उनके हदय में उनके माता-पिता ने डाले थे। प्रेम और आस्था उनके जीवन का स्थाई भाव था। उन्होंने अपने धर्मग्रंथ ‘बाइबिल’ का गहन अध्ययन किया था, बाद में उसका हिंदी अनुवाद खंडों में ‘मुक्तिदाता’, ‘नया विधान’ और ‘नील पक्षी’ (नीलपक्षी पूर्ण करने से पूर्व ही देह त्याग दिया) के नाम से किया।
अध्यात्म की पुकार से प्रेरित होकर उन्होंने इक्कीस वर्ष की उम्र में बड़े ही सहज मन से संन्यास लेने का संकल्प कर लिया था। संन्यास लेने से पूर्व उन्होंने अपने माता-पिता से विचार-विमर्श भी किया, माता और पिता ने बिना किसी हील-हुज्जत के उन्हें स्वीकृति दे दी। संन्यास लेने के पश्चात् चौदह वर्ष तक वे अपने माता-पिता से दूर भारत में रहे। डा. बुल्के प्रतिदिन बाईबिल के साथ-साथ रामचरितमानस का भी स्वाध्याय करते थे। रामचरित मानस उनके लिए केवल एक महाकाव्य नहीं था, वह उनके लिए एक ऐसा जीवन दर्शन था जो उन्हें अपनी आत्मा के निकट लाता था। रामचरितमानस के अयोध्याकाण्ड का पारायण करते हुए, लक्ष्मण और उनकी माता सुमित्रा के बीच हुए संवाद से अनायास ही उन्हें अपनी माता की याद आ जाती। उनकी विदुषी माता ने अपनी पहली संतान (कामिल बुल्के) के मिशनरी बनने के संकल्प को सुनकर आंसू नहीं बहाए। पुत्रा के संकल्प से उन्हें दुःख नहीं गौरव का अनुभव हुआ था। वे लिखते हैं, ‘‘मेरी मां का उत्तर मुझे सुमित्रा के शब्दों से मिलता-जुलता उत्तर लगा, ‘‘पुत्रावती युवती जग सोई, रघुपति भगतु जासु सुत होई।’’ सन् 1938 ई. में उन्होंने रामचरित मानस तथा विनयपत्रिका को प्रथम बार आद्योपांत पढ़ा। रामायण के पारायण से उनके हृदय में गोस्वामी तुलसीदास के प्रति जो श्रद्धा उत्पन्न हुई उसमें उन्हें ऐसी आध्यात्मिक अनुभूतियां मिलीं जो आगे चल कर उनके जीवन के स्थाई भाव बन गए। साहित्य तथा धर्म के विषय में फादर बुल्के की धारणाओं (वैचारिकता) में उस श्रद्धा भक्ति का गहरा विश्वास मिलता है जो तुलसीदास के मानस में पूरी संपूर्णता के साथ वक्त होता है।
डा. कामिल बुल्के का कहना था कि कला और साहित्य मानव जाति की गहन उपलब्धियां हैं, मनुष्य की उच्च कल्पनाएं तथा गहरी अनुभूतियां उनमें अभिव्यक्त होती हैं- इसलिए आस्तिक भी उन्हें मानव जीवन के उद्देश्य से अलग नहीं कर सकता। डा. कामिल बुल्के मानते हैं कि सृष्टि, कला और साहित्य का लक्ष्य सौंदर्य है, किंतु यह सीमित नहीं बल्कि अनंत है।
‘तमेव भान्तमनुभाति सर्वम्
तस्य भाषा सर्वमिदमं विभाति’
उन्होंने कठोपनिषद से उपरोक्त संदर्भ लेते हुए अपनी जीवनी में एक स्थान पर लिखा है, ‘‘मनुष्य के हृदय में उस अनंत सौंदर्य की अभिलाषा बनी रहती है और इस कारण वह उसके प्रतिबिम्ब के प्रति, सीमित सौंदर्य के प्रति अनिवार्य रूप से आकर्षित हो जाता है। कलाकार तथा साहित्यकार को मनुष्य की इस स्वाभाविक सौंदर्य-पिपासा को बनाए रखना तथा इसका उदारीकरण करना चाहिए, उसी में उसकी कला की सार्थकता है।’’ इस कसौटी पर तुलसीदास का साहित्य खरा उतरता है। तुलसीदास मानस को ‘स्वांतः सुखाय’ रघुनाथ गाथा मानते हैं किंतु ‘कला, कला के लिए’ आदि कला की उद्देश्यहीनता विषयक सिद्धांत उनके
मानस से कोसों दूर हैं। उनकी धारणा है कि
‘‘कीरति भनति भूति भलि सोई
सुरसरि सम सब कर हित होई’’
कामिल बुल्के का कहना था, ‘‘तुलसीदास के कारण मैंने वर्षों तक राम कथा साहित्य का अध्ययन किया है। लोक संग्रह उस महान् साहित्यिक परंपरा की एक प्रमुख विशेषता है और उस दृष्टि से तुलसीदास रामकथा-परंपरा के सर्वोत्तम प्रतिनिधि हैं। उन्होंने रामचरित के माध्यम से जिस भक्ति-मार्ग का प्रतिपादन किया है, उसमें नैतिकता तथा भक्ति के अनिवार्य संबंध पर बहुत बल दिया है।’’ अपनी और तुलसी की तुलना करते हुए डा. कामिल लिखते हैं, ‘‘तुलसी के इष्देव राम हैं और मैं ईसा को अपना इष्देव मानता हूं, फिर दोनों के भक्तिभाव में बहुत कुछ समानता पाता हूं। अंतर अवश्य है- इसका एक कारण यह भी है कि मुझमें तुलसी की चातक टेक का अभाव है।’’
वस्तुतः देखा जाए तो डा. कामिल बुल्के में भी तुलसी जैसा ही भक्ति-भाव है, प्रेम है, विनती है, समर्पण है। दोनों एक ही भक्ति-भाव और एक ही भातृ-भाव से जुड़े हए हैं। डा. कामिल बुल्के का कहना है कि मनुष्य ईश्वर का प्रतिरूप है। यदि हम मनुष्य को प्यार नहीं कर सकते तो हम ईश्वर को भी प्यार नहीं कर सकते हैं। हिंदी भाषा और साहित्य सदा डा. बुल्के का आभारी रहेगा। उन्होंने रामचरितमानस और हिंदी भाषा साहित्य को विश्व साहित्य में स्थान दिलाने का अपने जीवन काल में श्रेष्ठ प्रयास किया। उनकी हिंदी सेवा को स्वीकार करते हुए भारत सरकार ने 1974 में उन्हें पद्मश्री और बाद में, पद्म विभूषण आदि कई सम्मानों से विभूषित किया।